धवल ज्ञान धारा | Dhaval Gyan--dhara

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Dhaval Gyan--dhara by मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्वभाव-रमण च उवेवल जोर यह स्वस फो सवव घोरः विषय सुख कारज मे दौर रहे सपना। एसी मूढ दशा मे मगन रहै तिहूकाल, धावै च्रमजाल मे, न पावे रूप अपना ॥ भाई, यह काया, यह मिट्टी का पुतला तो चित्रशाला के रूप में हैं। यहा कर्मरूपी पलग पडा हुआ है । यहा आप पूछें कि साहब, यह्‌ बात तो ठीक नहीं हैं, बयोकि पलग के तो चार पाये होते हैं ? इसका उत्तर यह हैं कि घन-घाती कर्म भी चार ही होते हैं-- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । आत्मा के भीतर मोह का पलग पडा हुआ है और उस पर साया की गादी बिछी हुई है । उस पर कल्पना की चादर पडी हुई है 1 क्योकि यह करना है, वह करना है, ऐसी नाना प्रकार की कल्पनाए हमारे हृदय मे सदा उत्पन्न होती रहती हैं । परन्तु उनका करना आपके वश मे नही है । वे तो कर्म के उदय- बल से आप ही प्रगट होती रहती हैं। इसलिए वे सब कल्पना मात्र हो हैं । वे तो शेखचिल्ली के विचारों के समान हैं । भरे, तुझे तो यह भी पता नही है कि क्षण भर के बाद क्‍या होने वाला है ? तु क्या कर सकता है? कुछ भी नही । हा, तो इस प्रकार आत्माराम के इस देहरूपी भवन में मोहरूपी शैया विष्ठी हुई है 1 इस पर आनन्दघन चेतन आत्माराम नेक्ेटलगादी ओौर वहु अचेतनता कौ नीद लेने लगा । अर्थात्‌ इस चेतन को काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्रप आदि विभाव परिणति कौ नीद आ गई ओर फिर मोह का जोरदार खुर्खटा खीचने लगा । यद्यपि उस दशा मे आत्मा चाहती है कि मैं अपनी आखे खोलू † परन्तु खोल नही पाता है ! जैसे आपको जव गहरी नीद आ जाती है, तवे आखें खोलना चाहते है, परन्तु जाग नही पाते हं । अव उसे आपको धर वाले पुकार कर कहते हैं-- अरे, जाग जा। परन्तु आप कहते हैं---मैं क्या करू , मेरी तो आखें ही नही खुलती हैं। मुझे अभी और सोने दो । इसी प्रकार से मोह्‌ को मरोडा है 1 यह चेतन जागना चाहता है, परन्तु मोह जगने नहीं देता है। यह आत्मा उस मोह के चक्कर में क्यो आया ? क्‍योंकि कर्म का




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