धवल ज्ञान धारा | Dhaval Gyan--dhara
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
352
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्वभाव-रमण च
उवेवल जोर यह स्वस फो सवव घोरः
विषय सुख कारज मे दौर रहे सपना।
एसी मूढ दशा मे मगन रहै तिहूकाल,
धावै च्रमजाल मे, न पावे रूप अपना ॥
भाई, यह काया, यह मिट्टी का पुतला तो चित्रशाला के रूप में हैं। यहा
कर्मरूपी पलग पडा हुआ है । यहा आप पूछें कि साहब, यह् बात तो ठीक नहीं हैं,
बयोकि पलग के तो चार पाये होते हैं ? इसका उत्तर यह हैं कि घन-घाती कर्म
भी चार ही होते हैं-- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ।
आत्मा के भीतर मोह का पलग पडा हुआ है और उस पर साया की गादी बिछी
हुई है । उस पर कल्पना की चादर पडी हुई है 1 क्योकि यह करना है, वह
करना है, ऐसी नाना प्रकार की कल्पनाए हमारे हृदय मे सदा उत्पन्न होती
रहती हैं । परन्तु उनका करना आपके वश मे नही है । वे तो कर्म के उदय-
बल से आप ही प्रगट होती रहती हैं। इसलिए वे सब कल्पना मात्र हो हैं । वे
तो शेखचिल्ली के विचारों के समान हैं । भरे, तुझे तो यह भी पता नही है
कि क्षण भर के बाद क्या होने वाला है ? तु क्या कर सकता है? कुछ
भी नही ।
हा, तो इस प्रकार आत्माराम के इस देहरूपी भवन में मोहरूपी शैया
विष्ठी हुई है 1 इस पर आनन्दघन चेतन आत्माराम नेक्ेटलगादी ओौर वहु
अचेतनता कौ नीद लेने लगा । अर्थात् इस चेतन को काम, क्रोध, मान, माया, लोभ,
राग, द्रप आदि विभाव परिणति कौ नीद आ गई ओर फिर मोह का जोरदार
खुर्खटा खीचने लगा । यद्यपि उस दशा मे आत्मा चाहती है कि मैं अपनी आखे
खोलू † परन्तु खोल नही पाता है ! जैसे आपको जव गहरी नीद आ जाती है,
तवे आखें खोलना चाहते है, परन्तु जाग नही पाते हं । अव उसे आपको धर
वाले पुकार कर कहते हैं-- अरे, जाग जा। परन्तु आप कहते हैं---मैं क्या करू ,
मेरी तो आखें ही नही खुलती हैं। मुझे अभी और सोने दो । इसी प्रकार से
मोह् को मरोडा है 1 यह चेतन जागना चाहता है, परन्तु मोह जगने नहीं देता
है। यह आत्मा उस मोह के चक्कर में क्यो आया ? क्योंकि कर्म का
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