संत साहित्य की भूमिका | Sant Saahitya Ki Bhumika
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)७
सत्पतिं पतिम् ॥ १? में 'सत्पति! शब्द का अर्थ सज्जनों का पंति या पालन
करनेवाला है| इसी 'सत्” (सज्जन) शब्द से सन्त शब्द बना हुआ है ।
অজুনিহ श्रौर शतपथ ब्रह्मण के “स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूर-
वसे साधुकर्मा” मे साधु” शब्द अ्रच्छाई का द्योतक है ओर (साधुकर्मा
तो सन्त या साधु होता ही है | गीता के 'परित्राण।य साधूनाम्*” से भी सन्त
ओर साधुपुरुष ही द्योतित होता है। भ्रीमद्धागवत के पश्यति ते मे
रुचिराण्यम्ब नन्तः प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनानि४ मे सन्त शब्द व्यवहृत हृश्रा
ही दहै | श्रतः वैदिक काल से लेकर श्राज तक सन्त-वाणी की श्रमृतमयी
धारा निरन्तर प्रवाहित हाती चल्नी आ रही है ।
प्रस्तुत प्रन्थके करती लेखक सन्त स्वभाव के हैं, ग्रतः यह ग्रन्थ
उनके अ्रनुभव, श्रध्यवसाय तथा उनकी परिष्कृत रुचि से प्रसृत हुआ है।
सन्त साहित्य का जो परिचय इस ग्रन्थ में दिया गया है वह अन्यत्र एक स्थान
में मिलना दुलभ है । संक्षेप में विषय का पूण परिचय देने के बाद लेखक
ने हिन्दी के सन्त साहित्य के निर्माण के युग की राजनीतिक, सामाजिक
तथा धार्मिक परिस्थितियों का विवेचन करके भाद् मं उनका एक विशद
पिंहावलोकन किया है| सन्त साहित्य की परम्परा की श्रन्तःप्रेरणा पर विचार
करते हुए कृती लेखक ने (१) परम तत्त्व (२: जीवात्मा और जगत् (३)
ब्रहमानुभूति (४) सौँदय॑-बोध तथा सामाजिक व्यवस्था की बड़ी मार्मिक
सैद्धान्तिक विवेचना की है। अन्तः प्रेरणा के उपक्रम में लेखक ने सनन््तों के
समग्र लक्ष्यों को संक्षेप में बड़ी कुशलता से एकत्रित कर दिया है। अन्तः
प्रेरणा के साधनात्मक অভ में उसने वेदों से आरंभ करके हिन्दी के सन्त
साहित्य के निकटतम पूर्वकाल तक की तमाम साघनाओं के प्रभावों की
चर्चा करते हुए (१) विचार स्वातन्त्य, (२) भक्ति-भावना, (३) योग
শশী
१ कम्ेद १(१।११। २ यजुबेंद, भ्रध्याय ८, भत्र ४५ । ओर शथपथ ब्राह्मण
४1।६।४।५ । ३ गीता भ्रष्याय ४, श्लोक ८। ४ श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ३,
अध्याय २५ श्लोक ३५ । |
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