अर्थविज्ञान और व्याकरणदर्शन | Arthvigyan Aur Vyakarandarshan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Arthvigyan Aur Vyakarandarshan by कपिलदेव द्विवेदी - Kapildev Dwivedi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कपिलदेव द्विवेदी - Kapildev Dwivedi

Add Infomation AboutKapildev Dwivedi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( ६० ) प्रकृति-प्रत्यय' के विभाजन को करते हुए লী सन्धि सिखाता है, विग्रह में भी सन्धि की प्रकार बताता है, इन्द्र (वोरघ, विवाद) में भी समाहार (एकल, एकता) सिखातां है, व्यपेज्ञाभाव(पारस्परिक-सहयोग) समास के साथ एकरार्थमाव रुमास (एकलचइुयता,एक- उद्देश्यता) सिखाता है। आकृति के साथ ही द्रव्य को पदाथं मानना सिखाता हे, भौतिक- वाद के साथ ही आत्मवाद और ब्रह्मवाद की शिक्षा देता है, जाति और व्यक्ति दोनों को ही पदार्थ मानना सिखाता है। न जाति की उपेज्ञा की जा सकती है और न व्यक्ति की | जाति की सिद्धि द्वारा वैयाकरण जिस लक्ष्य पर पहुँचते हैं, वह है कि व्यक्ति जाति का अंग है, जाति नित्य है और व्यक्ति अनित्य, जाति सत्य है ओर व्यक्ति असत्य ।' व्यक्ति जाति का अंग है, अंग अंगी के लिए है, व्यक्ति जाति के लिए है, व्यक्ति सर्माष्ट के लिए है, व्यक्ति समाज का एक अंग है, वह समाज की सेवा के लिए है, व्यक्ति राष्ट्र का एक अंग है, अतः राष्ट्र की सेवा उसका कर्तव्य है। वेयाकरण इतने से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे पदवाद पदस्फोंट को भी त्रुटिपूणं समझते हैं, वे जातिवाद कोभी पृथक्‌ करके शुद्ध नदीं समते है, वे वाक्यस्फोट की सिद्धि करके यह तिद्ध करते ई किं जातिभेद से, राष्ट्र: भेद से, समाजमेद से सैकड़ों अ्रनर्थ होते हैं| जिस प्रकार व्यक्ति जाति का एक अंग है उसी प्रकार जाति, राष्ट्र ओर समाज वाक्य के एक अंग हैं, विश्व के एक अंग हैं। उन्हें विश्व के हित के लिए अपना अस्तित्व रखना चाहिए, विश्व-हित में ही अपना हित निहित समझना चाहिए | विश्व-शान्ति, विश्व-बन्धत्व, विश्वन्वर्म, विश्व-संस्कृति एवं विश्व को ही श्रखण्ड श्र निरवयव तथा अनिर्वचनीय शब्द-ब्रह्म का एकमात्र प्रतिनिधि समझना चाहिए | वैयाकरणों ने एक इस सत्य का निर्वाह किया है जिसको भगवान्‌ कृष्ण ने कहा है कि न बुद्धिभेदं ` जनयेदज्ञानां कर्मसडिगनामू? २ कर्मयोगियों में बंद्धिमेंद उत्पन्न न करे। ग्र॑तएव वैयाकरण श्ौनियो केलिए प्रतिमा की पाष्ति उद्देश्य बताते हैं तथा कर्मयोगियों के लिए क्रिया, कर्मश्यता, कर्मठता एवं निष्कामभाव से कर्म करने की शिक्षा देते हैं । पतञ्जलि एवं भत हरि ने उक्त प्रकार से विभेदों में ग्रभेद और अनेकताओं में एकता को संमकाया है | यदि सारे वेद, सारे दर्शन, समस्त व्याकरण, समस्त ज्ञान, विज्ञान, अन्वेषण, अनुसंधान ओ्रोर सर्वतोमुखी विकास होने पर भी विश्व मे शान्ति, सुख, ज्ञान) एकता, प्रेम, श्रहिंसा ओर सत्य की सिद्धि नहीं होती है तो इसका साशा कलंक वेद, दशन, ज्ञान, विज्ञान, अनुसंधान ओर तथाकथित सबतोमुखी विकास पर है ओर मुख्य रूप से उनके अनुयायियों पर है । यह शब्दब्रह्म ओर धर्थन्रक्ष दोनों का अनादर और श्रपमान है। शब्दतत्त्त की रक्षा के लिए अथतत्त्त ( सृष्टि ) है और अथतत्त की रक्षा के लिए १. सत्यासत्यौ तु यो भावौ प्रतिभावं ग्यवस्थितौ | सत्यं यत्तत्र सा जातिरखत्या व्यक्तयः स्मृताः ॥ ( वाक्य० ३, पृष्ठ २८) २, गीता : ই, २६,




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now