संस्कृत रूपकों में लोक - संस्कृति एक समालोचनात्मक अध्ययन | Sanskrit Roopkon Mein Sanskriti Ek Samalochnatmak Adhyyan

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Sanskrit Roopkon Mein Sanskriti Ek Samalochnatmak Adhyyan by मृदुला त्रिपाठी - Mridula Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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करता है । ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध एरुष-सृकत में लोक शब्द का व्यवहार जीव तथा स्थान दोनों अर्थो में हुआ है।* ऋग्वेद के अतिरिक्त अथर्ववेद म भी लोक का सङ्केत मिलता है । अथर्ववेद मे दो प्रकार के लोक की स्थिति व्यक्त की गयी है । एक मन्त्र मे आये कस्मात्‌ लोकात्‌ , . , . ' का अर्थ है किस लोक से अर्थात्‌ एक से अधिक लोक की सम्भावना व्यक्त की गयी है । सम्भवतः यहाँ पर लोक शब्द भुवन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त मे भी ब्रह्मचारी के विषय मे बताते हए 'लोक' का प्रसङ्ग. आया ই- वह (लोकान्‌ संगृभ्य) लोगों को इकट्ठा करता हुआ अर्थात्‌ लोक सद्ग्रह करता हुआ ओर बार-बार उनको उत्साहित करता है।* “यहाँ लोक का प्रयोग लोग के अर्थ में हुआ है । अथर्ववेद में ही उत्तम स्त्रियों की रक्षा के सन्दर्भ मे लोक का प्रसङ्ग आया है।” यहाँ 1 य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रेतुष्टवम्‌ । विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं জলল্‌ 11 ऋग्वेद - 3/53/121 2 नाभ्या आसीदन्तरिक्षं, शीर्ष्णो- द्यौ समवर्तत. । पदभ्यां भूमि: दिशः श्रोत्रात्‌ . तथा लोकानकल्पयत्‌ 11 पुरुषसूक्त, ऋग्वेद । 3 कूतस्तौ जातौ कतमः सो अर्धः कस्माल्लो कात्कतमस्याः । वत्सौ विराज सलिलादुदैतां तौ त्वां पृच्छामि कतरेण दुग्धा ।! अथर्ववेद 891 । ও রভাভখ্তি ভাগিনা समिद्धः काष्णवसानों दीक्षितो दीघश्यिश्रु: / स खदा एति पर्व्स्यादुत्तर समुद्र लोकान्त्यसथुम्य मृहुराचारिकत्‌ ।¡ अथर्ववेद 11547 4 यासामृषभो दूरतो वाजिनीवान्त्सद्यः सर्वान्‌ल्लो कान्पर्यैति रक्षन्‌ 11 अथर्ववेद 4८385 4 बहुव्याहितो वा अयं बहुशो लौकः 11 जैमिनीयोपनिषद्‌ ब्राह्मण 3428 । 5 संस्कृति के चार अध्याय - ड9 रामधारी सिह दिनकर, पृष्ट 162 ।




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