विज्ञान प्रयागकी विज्ञानपरिषतका मुखपत्र | Vigyan Prayagki Vigyanparishatka Mukhpatra

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Vigyan Prayagki Vigyanparishatka Mukhpatra by ब्रजराज - Brajraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ वि ছাল ५० सहस्न॒ वर्ष पीछे तक पहुँच चुका है। ऐश्वी दशामें यह कहना कि जिस जातिऊे बिन्‍्ह अब तक दृष्टिगत नहीं हुए उसका इस घरातलपर आस्तित्व कभो न रहा होगा. उचित नरी जान पड़ता । भूगमे विज्ञान भूमिके अतीत इतिहास खोजन करत। हे । भू गभं वेत्ताओंने इस सौर समयकों चार कल्पों और १८ युगोंपें विभाजित किया है | प्रथ्वीकी अ.यु अनुयायी मानतः काई दो अरब वर्षो के लगभग बताई जाती है । धरातस्के निचले परमे प्रणियोके जो सिह मिलते हैं उनमें एक विशेषता पायी जाती है । प्रत्येक युगक्की सृष्टि और शेष युगोंकी सृष्टिसे विशेष है । एक युगके प्राणी आगे पीछेऊे युगसे बहुत भिन्न प्रिलते हैं। एक बात और भी, जैसे जैसे समय बीतता जाता है वैसे ही वैसे उत्कृष्टतर जातियां आती चडी जाती हैं । इन सबकी उपेक्षा नहीं शी जा सकती । इसका उत्तर यद्‌ है किं प्राचीनतमश्मलमे भीरेसी बहुत सी जातियोंक्े चिह्न मिलते हैं जिनकी बनावट बहुत ही उन्नत है ( यद्यपि इतनी उन्नत नहीं जितनी कि रीदवाले पशुओंकी ) उस कालकी कुछ जातेयां अपने उस्ती रूपमें अबतक कहीं कहीं पाई जाती हैं। सवव्यापों विकासवादक्े आगे वे केसे अब तक अपने उसी रूपपे बनी रहीं, यह कुछ भी सममभमें नहीं आता। इस बातके माननेमें केई आपत्ति नहीं दीखती कि उस समय तो सजीत ससारम बहुतरे जन्नत प्राणी रहते थे। प्राचीनतम काल चिह्न विशेषतया जीवों तथा जनन्‍्तुओंके ही हैँ वक्षोंझे नहीं। बिना उड्धित बगके जीव जन्तु ओ- হা লিলার नहीं होता । इस कारण अवश्य ही उन जन्तुग्रासे पहिले कुछ न कुछ वृक्ष उनके जीवन यापनका अवश्य रहे होंगें। उनका अभी तक विशेष पता नहीं चला, परन्तु इस्ती कारण उनके अस्तित्वकेा अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अनुमानत; सब जातिके जीव प्रत्येक काछूमें रहे हैं ओर परिस्थिति अनुकूल होने पर उनकी इतनी संखा बह गई है कि उनके चिह अब तक मिलते रहते हैं। एक बात विश ध्यान देने योग्य है। भू-गर्भ इतिहास [ भाग २७ সি সি সস সস সপ ০ পি এসপি লি ক্স পপ একা পা देखनेसे ऐसा जान पड़ता है कवि एक कालके जीवोंका एक दम विनाश होंकर नये य॒गमें बिल्कुल नवीन सष्टिका आविभोव हआ है। डाविन साहबने यह कृह कर इसका समाधान किया है कि एक देशके रहने वाले कल्पान्तमें अथवा एऋ यु के पीछे ही अपने निवास सखानपे चलकर देश देशान्तरम फल्न जाते हैं। यह अनमान अधिर संगत नहीं दीखता दूसरे नई विचार शैलीसे सहज ही में इसका समा- धान होता हैः-परिस्थिति अनुकूल्न आने पर वह जीव बढ़ गये जो पहिलेसे मौजूद थे परन्तु उनकी संख्या बहुत न्यून थी । डाविन साहबने शानके साथ बर बार यह क्हा है कि एक जातिका अस्तित्व मिटकर पुनरो- त्थान नहीं हो सक्ता, यद्यपि इसके विभपक्तमें प्रमाण प्रस्तुत करनेमें कठिताई बहुत है । कारण कि जाति का निर्णय वरनेमें कालका भी ध्यान रक्ण़ा जाता है परन्तु तिस पर मी काले-फान जीद्ूल ( २६७] पठा 21०] ) ने इस विषयके बहुतसे उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनसे यह भी भांति प्रकट हो जाता है कि काई केःद वग तीन तीन चार तक इस संसारस পিল पाकर नया जीवन लेकर आगये हैं। भौगोलिक विस्तार:--वतमान युगयरें बहुतसे वृक्त और जीव ऐसे हैं जो एक देशीय है। अतीतकाटमे भी इव प्रकरी वहूतसी सृष्टि थी छकुं जातियोंके प्राणि ऐसे भी हैं जो सबंइशीय हैं. और पहलेमी इस प्रकार की जातियां इस भूमंडल पर रही हैं । प्रयेक देशरे अधिव्रासियोंत्ना अपना कुञ्न न कुल्ल निरालापन है; न केवल देश देशकी मिन्नतादी इसका कारण है वरन्‌ घरातलकी ऊँचाई, नीचाई का भी उनके स्वभाव प সমান पड़ताहै। यदि चौरम मैदानमे किसी ान्तपरे एक प्रकार की सृष्टि हैं तो पव॑त पर प्रायः क्रौर प्रकार की । मरुस्थरूमें मेसे प्राणी हैं वैसे समुद्र गर्भमें नहीं হুল बातोंके कैसे विका सवा के अनुकूल खममा गया है, यह तो सममनेवालेही जाने, परन्तु इस सम्बन्ध्म जो तत्व




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