महर्षि वाल्मीकि | Maharishi Valmiki

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Maharishi Valmiki by श्री बैजनाथ केडिया - Shri Baijnath Kedia

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री बैजनाथ केडिया - Shri Baijnath Kedia

Add Infomation AboutShri Baijnath Kedia

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
^ ( (२) मरा निषाद प्रतिष्ठालमयमः झाकतीः समाः यत्कौंच मिदुनादेव अबर्थी: कामसोहितस्‌ चाल्मीकिक्रे आश्ममें शाल्ति थी । शिष्य भरद्वाज ऋषिको सेचार्मे था। महत्मुनि ध्यानमें थे। एकाएकी पासके ऐेड्से कौंच पश्षीके चरेल्फारका शब्द भाया | क्रौंकका जोड़ा तड़फड़ाकर नीचे गिरा | सुनिका ध्यान टूट गया। घायल बिड़ियोंकों पकडनेके दिये निषाद एक ओरसे बढ़ा । बालक भरद्वाज भाट चिड़ियेके पास पहुँच वाण निका- | लने लगा । महामुनि करुणासे पिट भये । छड़े हो गये और बढ़ते हुए लिपादको ; | रोकते हुए करुण रमे यद वाक्च बोल यये-- 1 तेर करौच दोउ भोगरत भयउ न हिये विषाद्‌, कषु न रित बिर होव हे तेरों निठुर निषाद ! व संखारफै पदे कविके दिखने चोट छायो! पीटा उमड़ उखा । करुणारसमे | बांसुरीको तरद उसके खरयंत्रकों फू'का । ओ शब्द निकले बढ करूणासे अ्रवृत्त शापक्ते ये। पछी कषिदा थी ! वाल्मीकिको आप ही इस श्लोकपर अचरज छुआ । उन्होंने यद्दी ठान लिया कि इसी तरइके पद्योमें रामायण कहुंगा। उन्होंने रामायणकी कथामें रामजीके बंशके पूर्व पुुषोंका वर्णव किया। फिर राजा वशरथकी रथर लिक्षी ; तय | पपरायणकी फणा लिक्ली ॥ | 4




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now