भाषा साहित्य समीक्षा | Bhasha Sahitya Samiksha

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : भाषा साहित्य समीक्षा - Bhasha Sahitya Samiksha

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about विनय मोहन शर्मा - Vinay Mohan Sharma

Add Infomation AboutVinay Mohan Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
উন্ন-লত और জানি £ ও कि आनन्द के साथ मयद्‌ प्रत्यय लगाने से विकार का भाव आ जाता है, परल्तु बरह्म विकारमयकंसे हो सकता है ? अतः उसे आनन्दमय नहीं कहा जा सकता । इस शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार ने कहा कि मयद्‌ प्रत्यय से प्राचुयं का अर्थ भी सूचित होता है। अतः जो अनन्द से परिपूर्ण है वही ब्रह्म है । वहदारण्यक (४/८/६) में आत्मा को आनन्द का स्रोत कहा गया है। इसीलिए आत्मा ही दशन, श्रवण, मनन ओर निदिध्यासन के योग्य है। क्योंकि आत्मा से भिन्‍न कुछ भी नहीं है, इसीलिए हमारे ऋषियों ने उपदेश दिया है -- “आत्मानं विद्धि (आत्मा को पहचानो) । उपरतिषदकार ब्रह्म के अमूतं भौर मूतं दोनों रूपों का वर्णन कर उप्ते इन दोनों से परे कहते हँ । केन उपनिषद्‌ मे उपे इन्द्रियों की पहुँच के परे कहा है। सन्त भी ब्रह्य को व्यापक स्वीकारते ই জীহ उसे उपनिषदकार के समान ही मूतं-अमूतं से परे मानते हैँ । अतः हमे ब्रह्मवादी आचार्यो के ब्रह्म सम्बन्धी मतों को जान लेना चाहिए । ब्रह्मवादी, वादरायण के सामान ही विश्वास करतेहैँ कि ब्रह्म का ज्ञान श्रुति-स्मृतियों के आधार पर ही हो सकता है--स्वतन्त्र तकं से नहीं । अतः वे शब्द-प्रमाण (आत्मवचन) को ही एकमात्र प्रमाण मानते हं। सन्त प्रव्यक्त प्रमाण को मानतेर्ह। (आंखिन की देखी पर उनकी आस्था है--कागद की लेवी पर नहीं । शंकराचाय अद्वतमत के प्रबल उद्घोषक हैं। उनके मत से ब्रह्म शुद्ध सत्तामय (सत्‌ और चित्‌, चेतनामय ) और निविकार है। फिर भी वह अपने को नाना रूपों में अभिव्यक्त करता है। आचार्य ने ब्रह्म का तात्विक तथा व्याव- हारिक पक्ष से विचार किया है। तात्विक दृष्टि से जगत मायामय है पर व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है। अतः इस रूप में उसे ईश्वर या सग्रुण ब्रह्म कहा गया है । ब्रह्य, ईश्वर ओर माया प्रथक्‌-पृथक्‌ नहीं हैं। माया ब्रह्म की शक्ति है और ईश्वर ब्रह्म का पर्याय है । प्राचीन ऋषि एक ही तत्व को भिन्न-भिन्न नामोंसे ख्यात करते रहे हँ । विष्ण, सहुखनाम इसका उदाहरण है । निविशेष ब्रह्म सत्य और अनन्त अनित्य है । सविशेष ब्रह्य सगुण भाव धारण कर उपास्य बनता है। मुंडकोपनिषद्‌ में उसका इस प्रकार रूपोन्यास किया गया है--“अग्नि उसका शीर्ष है--चन्द्र-सूर्य चक्ष्‌ हैं, दिशाएँ उनके कान हैं, वेद उसकी वाणी है, वायु उसका प्राण है और यह विश्व उसका हृदय है। उसके दो चरणों से पृथ्वी निकली है । वह्‌ सब प्राणियों का अन्तरात्मा है। (२/७/८) रामातुज निर्गुण ब्रह्य की कत्पना न्ह करते, वे सुख ब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि जगत के समस्त पदार्थ गुण सहित ही होते है । नि्िकल्य प्रत्यय मे भी सविशेष (गुण) की प्रीति ही प्रतीत होती है। ( निर्विकल्प प्रत्ययेडपिसविशेषभेव वस्तु




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now