हास्य-रस | Hasya-Ras

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Hasya-Ras by G. P. Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हास्य-रस श्द जाता है कि मुँह सिकोड़े-सिकोड़े इज्रत की खाली समभ ही नहीं सिकुड़ गई बहिक हँसनेवाली कमानी सिंकुड़कर मुंह. भी थूथन बन गया है। फिर बेचारे किस सुँह से हास्य का दस भरें ? हारय बुद्धिमाच्‌ ज्ञानी और समभदारों के लिये है क्योंकि इसका घना संबंध दिमारा से है हृदय से नहीं । जिसकी खोपड़ी में दिमारा है वददी इसका मज़ा लूटना जानता है और वही इसके महत्त्व को समभक सकता है. । कुरचि-पूण॑ विपय होने से हास्य भश या मं/डा अलकत्ता कहा जा संकता है मगर इस हालत सें भी यह अपना सुधार का सोटा हाथ से नहीं छोड़ता । क्योंकि इसका तो ्ाधार कुराई दष श्रुटि इत्यादि हैं जो मानव-जीवन के सुख में ग्वलबली मचाते हैं। जब वोट करता है तब किसी-न-किसी ऐेब ही पर चाहें वह चरित्र स्वभाव व्यवहार नीति धर्म समाज साहित्य किसी में भी हो । जहाँ श्रत्यक्त रुप में यह कोई सुधार करता हुआ नहीं भी जान पड़ती वहाँ और कुछ सहीं तो क्रम-से-कम खाली हँसाकर स्वास्थ्य को ही लाभ पहुँचाना दे । हसीलिये तपेदिक्र के रोगियों को हास्य-रस की पुस्तकें पढ़ने को दी जाती हैं । मानव-जीवन के लिये यह क्या कस उपकार की बात है ? स्पेन के सरवैंटीज़ ने डासक्यूज़ोट की रचना करके योरप-भर के खुदाई-फ़ौजदारों की इस्ती मिटा दी | हंगेलेंड के शेक्सपियर ने अपने शाइलाक द्वारा की हुलिया बिगाड़ दी । फ्रांस के सौलियर से छापने पैन्के और




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