जै न द र्श न | Jain Dharshan

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Jain Dharshan  by महेन्द्रकुमार जैन - Mahendrakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ जैनदशेन की सत्ताको माननेवाल्य आस्तिक और न माननेवाला “नास्तिक' कह- लाता है। स्पष्टत' इस भ्र्थमे जेन गौर बौद्ध जैसे दर्शनोको नास्तिक कहा ही नही जा सकता । इसके विपरीत हम तो यह समझते हैं कि शब्द- प्रमाणकी निरपेक्षतासे वस्तुतत्त्वपर विचार करनेके कारण दूसरे दर्शनोकी अपेक्षा उनका अपना एक आदरणीय वैशिष्ट्यर ही है । जैनददोनकी देन : भारतीय दर्शनके इतिहासमे जैनदर्शनकी अपनी अनोखी देन है । दर्शन शब्दका फिलासफोके अर्थमे कबसे प्रयोग होने लगा है, इसका तत्काल निर्णय करना कठिन है, तो भो इस शन्दको इस अर्थमे प्राचीनताके विषयमे सन्देह नही हो सकता । तत्तद्‌ दशनोके लिये दर्शन शब्दका प्रयोग मूलमे दसी अ्थमे हुआ होगा कि किसी भी इन्द्िययातीत तत्त्वके परीक्षणमे तत्तद्‌ व्यक्तिकी स्वाभाविक रुचि, परिस्थिति या अधिकारिताके भेदसे আ तात्त्विक दृष्टिभेद होता ह उसीको दर्शन शब्दसे व्यक्त किया जाय 1 ऐसी अवस्थाम यह ल्पष्ट हैं कि किसी तत्त्वके विषयमें कोई भी तात्त्विक दृष्टि ऐकान्तिक नही हो सकती । प्रत्येक तत्त्वमं अनेकरूपता स्वभावत होनी चाहिये और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्त्विक प्रति- पादन नही कर सकती । इसी सिद्धान्तको जैनदर्शनकी परिभाषामे 'अने- कान्त दर्शन! कहा गया है। जैनदशनका तो यह आधारस्तम्भ है ही, परन्तु वास्नवमे प्रत्येक दार्शनिक विचारधाराके लिये भी इसको आवश्यक मानना चाहिये । बौद्धिक स्तरमें इस सिद्धान्तके मान लेनेसे मनुष्यके नेतिक और लौकिक व्यवहारमें एक महत्त्वका परिवर्तन आ जाता है। धारित्र ही मानवके जीवनका सार है। चारित्रके लिये मौलिक आवश्यकता इस बातको है कि मनुष्य एक ओर तो अभिमानसे अपनेको पृथक्‌ रखे, साथ ही होन मावनासे भी अपनेको बचाये । स्पष्टत. यह मार्ग अत्यन्त कठिन




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