नगरी प्रचारिणी पत्रिका | Nagri Pracharini Patrika (1948) Ac 2589

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ नागरीप्रषारिणी पत्रिकां लिये उत्छाहित करता है। में भूतकाल के संबित कल्याण को इख हेतु किप खड़ा हूँ कि भविष्य को उसका वरदान दे सकू । जिस युग में गंगा और यमुना ने अनंत विक्रम से हिमां के शिला खंडों के चूरित करके भूमि का निमोण किया था, उस देवयुग का में सकी हं | জি पुरा काल में आये महाप्रज्ञाओं ने भूमि को वंदना करके इसडे साथ झपना झमर सब'ब जेड़ा था, उस युग का भो में द्रष्टा हूँ। बशिष्ठ के मंत्रोथार ओर बामदेव के सामगान को, एवं सिंघु और कुभा के स'गम पर आये प्रजाओं के पेष के मेने सुना है। शतशः राजसूयो में वीणा-गाधियों के नाराशंसी गान से मेरा अंतरात्मा तृप्त हुआ है। राष्ट्रीय विक्रम की जे! शत साइस्री संहिता है उसके इस नए युग में में फिर से सुनना चाहता हूँ। उस इतिहास के कहनेवा ले कृष्ण दपायन व्यासों की मुझे आवश्यकता है। परीक्षित के समान मेरी प्रजाएँ पूर्जजों के उस महान्‌ चरित का सुनने के लिये उत्सुरू हैं। “न हि दृप्यामि एवान पूरे षौ चरितं महत्‌ पूज पूव॑जनां क मदान्‌ चरित फे झुनते हुए ठृप्त नहीं हाता। योगी याक्षवद्स्थ, आचाये पाणिनि, आये चाशक़्य, प्रियदर्शो अशोक, राजषिं विक्रम, महाकवि कालिदास और भगवान्‌ शंकराचाये के यशामय सप्तक में जे राग फी शेभा है उससे मनुष्य क्या देवता भी तृप्त दा सकते हैं। मेय श्राशोषेचन है कि भारत के कार्तिगान का सत्र चिरज्ञोवी हे।। प्रत्नकाल से भारती प्रजाओं के विक्रम का पारायण जिख अभिन दुनात्खव का मुख्य स्वर है, वही मेख पिय ध्यान है । राष्ट्र का विकरमांकित इतिदास ही मेरा जीवन-चरित है। मेरे जीवन का केंद्र জান के हिमालय में है। सुवण के मेरु मेंने बहुत देखे, पर में उनसे आकर्षित नहीं हुत्रा। मेरे ललाठ को लिपि के कोन पुरातरवेत। पढ़कर प्रकाशित करेगा ९ मे कालरूपी मान्‌ शश्च का पुत्र हज नित्यप्रति फूलता और बढ़ता है | बिराद भाव को सज्ञा हो अश्व है। विस्तार और वृद्धि यही अश्व का अश्वत्व है। जब राष्ट्र विक्रमधमे से संयुक्त दाता है तब बह मुकपर सवारी करता है, अन्यथा में राष्ट्र का वहन करता हूँ। मेरा अद्वारात्रूपी नाड़ी- जाल राष्ट्र के विव्धन के साथ शक्ति से संचालित देने लगता है। मेरी प्रगति को




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