मीरां का काव्य | Meera Ka Kavya

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Meera Ka Kavya by डाक्टर भगवानदास - Dr. Bhagwan Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवेश परपरा और परिवेश भारत भर्मंप्राण देश है। इसकी ऐतिहासिक परम्परा मे व्यक्तिगते जीवनः सामाजिक व्यवस्था, साहित्य, सम्यता, सल्दृति, आचार विचार, नीति, व्यवहार और कमं समी घमं घे यनुप्राणित होते रहे हैं। वैदिक काल से लेकर आधुनिक यशुग तक देश को इस धर्म प्राण चिन्तन घारा ने हमारे जीवन को आध्यात्मिक शक्ति से अभितिचिंत कर पटनवित, पृप्पिव मौर फलोमृत किया है। लौकिक जीवन में धर्म ने सत्य, अहिंसा, प्रेम, व्याग, सेवा, सधम, सदाचार, सत्कमं सौर परोपकार के सन्देश दे एक मौर तो व्यक्ति थौर समाज के आदर्श स्वरूप का मग्रलमय विधान प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर उसने बहनिश ईश्वर-मक्ति और आत्म चिन्तन द्वारा आध्यात्मिक उन्नति वा मार्ग निर्देशन भी किया है। इसी उदात्त सस्‍्कार के कारण भारतोय घमं- दशन घमागलिक तत्वो फा विरोधक, मानवीय सादर्णो का पोपक मौर लोकम गल विधायक सास्दृतिव' चेतन! का भाधार है । वह्‌ मनुष्य को ससार मे गात्मशक्ति-सम्पृनन +उन्नत मनुप्यता के साथ रहकर विदेदिता षे मुक्ति के परमानन्द फी उपलग्धि का मागं दतताता टै । व्यवहार और साधना के क्षेत्र मे मारतीयधर्मं साधना को यही उपादेयता उसके चिरन्तनं सरितत्व षा मूलभूत कारण है} यदि हम विक्रम को चौदहवी से सत्रहवी शठाब्दो तक के सम्पूर्ण भारतीय साहिय को अन्तश्वेतना के मूल स्वरूप का तात्विक' विवेचन करें, तो हमे यह स्पष्टत- परिलक्षित हो जाता है कि इस युग का अधिवांश साहित्य भक्तिमाव प्रेरित धरम-षापना साहिष्य है, जो तद॒युगोन देशव्यापी सॉस्कृतिक चेतवा के नवोन्मेष और प्रुर्नागरण का घोतक दै 1 इस पे साधना साहित्य को सदसे वडी विशेषता यह है कि इसके प्रणेदा उच्च श्रेणी वे' भावुक मक्त और युग-दप्टा सन्त ये, दिये उनकी वाणु स्वान्त सुल्ताय' होते हुए भी 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' है। उनके मन्तब्य चिरन्तन सत्य ने आत्मानुभूत प्रमाण वचन हैं। भत्ते ही कवि-क्में की उपासना उनदा ध्येय ने रहा हो, किर मी नुगत को सत्यता को उन्होंने जिस सहज, सरस दंग से अभिव्यजना को नहु शता दै, वह्‌ सनातन कवित्व बा धार है । मीदां का याविर्माद इसी भक्तियुग में हुआ था! ते राजस्याद विमूति थीं। राजस्पान दो रक्तरजित भुमि में अपनी दिव्य জু সি




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