हिंदी चेतना ,अंक -53, जनवरी- मार्च 2012 | HINDI CHETANA- MAGAZINE - ISSUE 53- JAN-MAR 2012
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
68
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नहीं देखा था । वह तो गीता के आदर्शों पर चलते
थे, फिर यह आज कया हो गया पापा को ?
शिवानी ने लपककर पापा को सँभालने की
कोशिश की।
मातादीन दौड़कर चौके से पानी ले आया
“' आखिर बेटे जैसा ही तो था, बेटे सी ही सेवा
की है दिनेश ने इनकी। मोह तो हो ही जाता है
बिटिया, बीस-पच्चीस साल का साथ है।
मुश्किल से दस-बारह बरस का लड़कवा ही तो
था जब आया था, तब ही से तो इहाँ बाबूजी
के पास, आप लोगों के साथ रह रहा है।''
पापा के चेहरे पर पानी की बूँदें छिड़कते हुए
मातादीन शिवानी को बाबूजी की हालत का
मर्म समझाने का प्रयास करने लगा, पर
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी शिवानी को तो कुछसमझ
में ही नहीं आ रहा था। बस चारों तरफ से आते
शब्दों के पक्षी उसके कानों के आसपास चोंच
मार-मार कर उसे लहुल॒हान कर रहे थे।
अपनी ही समाधि में लीन शिवानी सोचे जा
रही थी-माँ को कैसे बता पाएगी वह कि दिनेश
उसे मिला था आज ही...अभी और-इसी सुबह।
उसी सड़क पर, वहीं उन्हीं की कार के पास,
खून में लथपथ , आखिरी साँसें लेता हुआ। और
उन ल्मेगों ने मदद की तो दूर, उसकी तरफ मुड़कर
भी नहीं देखा था। यूँ ही तड़प-तड़पकर मरता
छोड़ आए थे उसे। जल्दी से झट अपने घर आ
गए थे, क्योंकि किसी पराए झँँझट में नहीं
फंसना चाहते थे वह लोग। एक बार पहले भी
ऐसे ही जल जो चुके थे वे, और जान-बूझकर
बारबार जलना तो मूर्खो का ही काम है।
काश....एक बार...बस एक बार वह या पापा
ज् और रुच्चे च्वभा[व के
ह्लेश् को ज़्याढा वक्त बहीं
शा घर-बाहरद् का हर
ञ् व्मीररने में। अपनी
छा और लगन स्मे तो
रूबका जन ही जीत
था था। कितनी जल्दी
अपना बन गया था बह, पर्
में क्या जिला उद्से १
मुड़कर देख लेते , शायद् दिनेश बच जाता । कम
से कम उसे कुछ आराम , कुछ राहत, कोई मदद
या तसलल््ली तो दे ही सकते थे वे। कम से कम
इस आग में तो न जलते । माना जीना मरना
भगवान के हाथ में है, पर उन्हें भी तो कुछ न
कुछ करना ही चाहिए था...।
शिवानी की दुख और पश्चाताप से झुकी
आँखों के आगे बीस साल पुराना एक दृश्य,
चलचित्र सा घूम रहा था, कुछ हठीली आवाज़ें
कान में गूँजे जा रही थीं। यही सुबह का सात
आठ-बजे का समय और यही गर्मियों का उमस
भरा मौसम। हरिया काका की उँगली पकड़े
एक आठ-नौ साल का लड़का, पद्ठे का पैजामा
और मारकीन की कमीज़ पहने शरमाया-
शरमाया खड़ा है और बगीचे में अपने पैर के
अँगूठे से क््यारी की मिट्टी कुरेदे जा रहा है।
“पापा, कौन है यह? '' लगभग उसी उप्र
की, अधजगी शिवानी वहीं बिस्तर से , कौतृहल
वश पूछे जा रही है।
“तेरा भेया है बेटी ।'' इसके पहले कि वह
कुछ और पूछे, पापा जबाब देते हैं।
“' अपने हरिया काका का बेटा है। जा इसे
अन्दर ले जा, कुछ खिला-पिला दे। रात भर का
भूखा-प्यासा है। अभी-अभी इस नासमझ ने
अपनी माँ को खोया है। और हाँ, माँ से कहना-
थोड़ा तेरे हिस्से का लाड़-दुलार इसे भी दें।इसका
भी वैसे ही ध्यान रखें।''
वह दिन और आज का दिन, दिनेश घर का
सदस्य ही तो था, पापा का अजन्मा बेटा।
शिवानी का अपना बड़ा भाईं। वह तो छोटे से
ही रहता-सोता सब घर के अन्दर ही था। हरिया
7१)
हित 16 जनवरी-मार्च 2012
काका की कोठरी में तो उसका मन ही नहीं
लगता था और उसकी यह आदत किसी को
कभी खली भी तो नहीं थी, क्योंकि बदले में
दिन भर सबका काम जो करता रहता था दिनेश।
हरेक की जीभ पर बस एक दिनेश का ही नाम
तो रहता था। हरिया काका को तो मानो उसने
रिटायर ही कर दिया था। तेज़ और सच्चे स्वभाव
के दिनेश को ज़्यादा वक्त नहीं लगा था घर-
बाहर का हर काम सीखने में । और अपनी निष्ठा
और लगन से तो उसने सबका मन ही जीत लिया
था। कितनी जल्दी अपना बन गया था वह, पर
बदले में क्या मिला उसे?
और यही सच शिवानी को दंशने लगा। क्या
उनके अँदर का आदमी हमेशा के लिए सो गया,
अब कभी नहीं जगेगा वह ? कया बस एक ही
दुर्घटना में मर गया वह, या समाज और
परिस्थितियों की आड़ ले वे ( वह और पापा )
और उनके जैसे जाने कितने, अनगिनित पढ़े-
बेपढ़े, बेबकूफ स्वार्थ-वश उसे खुद ही मार
आए ? कम-से-कम अस्पताल में एम्बुलेंस के
लिए एक फोन तो कर ही सकती थी वह, इतना
तो गैरों के लिए भी किया ही जा सकता है
इसमें तो कोई अहित नहीं , कोई खर्च नहीं, बस
बहनें ऐसी ही होती हैं क्या ? और यह पापा...?
पापा तो उसके बाबूजी थे.....हरिया काका से
भी ज़्यादा प्यार दिया था उसने इन्हें।
शिवानी रोते-बिल्खते पापा का दर्द अच्छी
तरह से महसूस कर पा रही थी, पर एक बात
उसकी समझ में नहीं आ रही थी कि पापा इस
तरह से बिलख क्यों रहे हैं ? वह क्या चीज थी
जिसने उन्हें पूरी तरह से तोड़ दिया ...दिनेश की
अकाल- मृत्यु? उसके न रहने से , होने वाली ढेर
सारी असुविधाएँ? या फिर खुद इनकी अपनी
कायरता और निष्कर्मणता? अनजाने में ही सही,
निर्मम और ठडी, स्वार्थी निष्ठरता ! क्यों वह
आज अपने को साँत्वना नहीं दे पा रहे? क्यों
गीता के शलोकों से भी आज कुछ समझ नहीं
पा रहे? क्यों पापा एक आम आदमी की तरह
बस फूट-फूट कर रोए ही जा रहे हैं?
.पर, एक आम-आदमी इससे ज़्यादा और
कर भी क्या सकता हैं?
शक
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