अदीठ लिबास | ADEETH LIBAAS

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विजयदान देथा - Vijaydan Detha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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का रोज नये-नये कपड़े पहनने का चाव खत्म हो गया। दूसरे कपड़े उसकी नजर में चढ़ते ही नहीं । उसके सब्र का बाँध भर गया । रेशम पैदा करने में लाखों रुपये फुँक गये । उसके बाद बारी आयी कातने ओर बुनने की। इकक्‍्कीस चरखे न्‍ ओर इकक्‍्कीस ही करचघे। खटपट-खटपट से सारा राजमहल तालमय हो उठा। एक दिन आखिर राजा से न रहा गया तो उसने रानी को मुआइना करने के लिए भेजा । तीन घड़ी बाद रानी भागी-भागी आयी। खुशी के है. 2 बरसाते कहने लगी, “क्या कपड़ा है ओर कया कारीगरी? मेरी तो अक्ल ही काम नहीं करती । देवता भी ऐसे कपड़े के लिए तरसते होंगे। ऐसी बेजोड़ चीज बनी. है कि आज तक किसी ने देखी-सुनी नहीं कैम । नजर ही नहीं टिकती | आप कहें तो दो जोड़ी मैं भी सिला लूँ ।' राजा की खुशी की सीमा न रही। रानी के कपड़ों से कहीं ओर देरी न हो जाये । उसे तसल्ली देते कहा, 'पहले मेरे कपड़े तो बनने दो । तुम्हारे लिए मनाही थोड़े ही है। दो की जगह दस बनवा लेना ।' रानी को जबरन सब्र करना पड़ा । रानी के मुँह से तारीफ सुनकर कारीगरों का जोश बढ गया। रात-दिन काम चलने लगा। चरखों की भन्‌-भन्‌ ओर करघों की खटपट से राजमहल की हवा दरकने लगी । एक दिन राजा अचानक मुआइना करने आरमखाने जां पहुँचा। तमाम कारीगर अपने-अपने काम में मगन थे । कोई लक्छियाँ इकट्ठी कर रहा था | कोई टूटे धागे को चुटकी से जोड़ रहा था। कोई कपड़े के थान को तहाकर रख रहा था । पर राजा को न लकच्छियाँ नजर आयी, न धागा, न थान। तो क्या वो हरामी और मूरख है? रानी ने झूठी तारीफ थोड़े ही की होगी! न दिखने का कहने पर सारी कलई खुल जायेगी । हरामी ओर मूरख को राजा कोन मानेगा! एक कारीगर उसके पास आकर, थान




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