हिंदी चेतना ,अंक -63, जुलाई - सितम्बर 2014 | - MAGAZINE - ISSUE 63 - JULY-SEP 2014

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दोहन करते। निहत्थी ,अकेली लड़की को आसान शिकार समझ जानवरों को तरह वहशियाना हरकतें करते वक्त वे भूल जाते कि उनकी भी उसी उम्र की लड़की है, बहन है या बीवी है। कितने बेबस है यहाँ हम | सच्ची में, ये सब के सब एक ही चेहरे पर कितनी कितनी परतें चढ़ाए रहते ? इन्हीं परतों की तह तक पहुँचना होगा हमें मगर इस बार इसे छोड़ेंगे नहीं | कोई बड़ा व कड़ा कदम तो उठाना ही पड़ेगा वरना ऐसे ही मनबढ़ होते जा रहे ये कमीने..... फिर वे थोड़ी देर सोचकर बोली-'पहले ये तो बताओ, उसकी इस घिनौनी हरकत का कोई प्रूफ है तुम्हेरे पास ? जिसके जरिए हम एक्शन प्लान कर सकें....... सोचते-सोचते वे बोल पड़ीं। 'अरे हाँ, मीतादी, अच्छा याद दिलाया। उस दौरान मैंने अपने दिमाग पर काबू रखा और ऐन मौके पर पॉकेट में रखे मोबाइल का स्विच ऑन कर दिया था; जिसमें उसकी हरकतें व अलफाज़ जस के तस रिकॉर्ड में दर्ज है और जिसे अब में दफ़्तर के एक-एक बंदे को सुनाऊँगी | पुलिस केस, कोर्ट केस, सब कुछ करने का ठान लिया मैंने। न, अब उसे छोड़ने वाली कतई नहीं में । आखिर कब तक वो हम जैसी औरतों का यूँ ही शिकार करता रहेगा ? लड़कियों के प्रति पुरुषों की सोच में बदलाव आखिर कब आएगा ? हमारे चुप बैठ जाने से हासिल क्या होगा ? चुप्पी सहते-सहते अंदर ही अंदर घुटते रहने की आदी रही है औरतें, आखिर कब मुखर होंगी वे ? अन्याय सहते रहने से आत्मविश्वास और हिल जाता फिर धीरे-धीरे बचा खुचा आत्म सम्मान भी चुकने लगता । लम्बे समय से ऐसा करते-करते फिर एक दिन ऐसा भी आ धमकेगा; जब हम अपनी ही नज़रों में गिर जाएगे। तो, आखिर ये सिलसिला कब थमेगा ? जब भी किसी ने इनके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की जुर्रत की तो उल्टा ये उसे ही गुनाहगार साबित करे में जुट जाएगे। “तेरी इस मुहिम में मैं भी तेरे साथ हूँ नेहा, अब तुम अकेली कहाँ ? हम कोई ढोर जानवर नहीं कि वे हमें कहीं भी हाँक ले जाएंगे । समय आ गया है कि हम ऐसे बदतमीज़, बददिमाग, महिलाओं के खिलाफ कुदृष्टि रखने वाले इन असुरों के खिलाफ जंग छेड़ दें। हम मिलकर एक साझा मंच बनाएंगे, जहाँ ऐसे अनाचार की शिकार बेबस बेगुनाह औरतों की आवाज सुनी जाएँगी। लेटू मी कॉल माई 16 हित जुलाई -सितम्बर 2014 एडवोकेट एट फर्स्ट। इस बीच क्‍या विभोर से बात हुई, क्या रुख है जनाब का ?' “सुबह से दो बार मेल कर चुकी, मैसेज कर चुकी । सब के सब हिप्पोक्रेट, मर्दवाद का मुखौय ओढ़े वही दोगला रवैया-शांत हो जाओ, चुप रहो, घर वाले सुनेंगे तो कितनी बदनामी होगी। किस- किस का मुँह बंद कर पाओगी तुम ? सब तुम्हारी तरफ तरस खाती नज़रों से देखेंगे। हमारी एक सामाजिक प्रतिष्ठा है, हमारी फैमिली का हाई स्टेट्स है, मेश भी तो एक खास ओहदा है सो अभी भी सोच लो.. यानी वही सब घिसी-पिटी बातों से कन्विंस करने की कोशिश कर कह रहा था। बोलो, कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहूँगी में ? आखिर इसमें मेरा गुनाह क्या है ? जबकि असली गुनहगार छुट्टा साँड़ बना हहलता रहे और हम बेगुनाह मुँह छिपाती फिरें, आखिर क्‍यों. चुप रहूँ? फिर चुप बैठ जाने से हासिल क्यान होगा ? कब तक अन्याय होने दूँ स्त्री जाति पर ? अब मैंने खूब सोच समझकर शांत चित्त से फैसला ले लिया, सो ले लिया। ऐसे तथाकथित सभ्य सुसंस्कृत बनने का ढोंग रचने वालों का असली चेहरा जब तक बेनकाब न कर दूँ, मैं चैन से नहीं बैठने वाली। सोचो ज़रा, आज हमारे साथ ये घटा, कल किसी और के साथ, परसों किसी और के साथ। बस, बहुत हो चुका। आइंदा से ये सब कतई नही होने दूँगी, हाँ, हमारी इस नईसोच का सूत्रपात हो चुका है, सो इस संघर्ष को धार देने के लिए हम संकल्पित हैं, कहीं से कैसे भी बदलाव की शुरूआत तो हो। ऐसे भेड़ियों के खिलाफ आवाज़ तो उठानी ही पड़ेगी चाहे इसके लिए कुछ भी सुनना पड़े, कुछ भी सहना पड़े, कुछ भी कुर्बान करना पड़े। मैंने आगा-पीछा सब सोच लिया है। सबका सामना करने कर लूँगी पर अब मैं चुप नहीं बैठूँगी। यकीनन, मैं पूरी तरह तैयार हूँ.... अंदर बाहर की जंग से जूझती नेहा को ऐसा लगा जैसे इस संग्राम के खिलाफ़ उसने पूरी ताकत से बिगुल बजा दिया हो। भीतर का समूचा ज़हर उड़ेलने के बाद अनायास उग आए आत्म विश्वास से नेहा का तनावमुक्त चेहरा बारिश से धुले मौसम के बाद खिली तेज़ धूप की तरह चमकने लगा। “यस, प्लीज कॉल द एडवोकेट... ' अपने लिए फैसले पर अटल नेहा के चेहरे की कौंध आकाश में चमचमाते सूरज से होड़ लेने लगी। []




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