हिंदी चेतना ,अंक -58, अप्रैल 2013 | HINDI CHETNA- MAGAZINE - ISSUE 58 - APRIL-2013
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
65
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आ जाएँगे।
रश्मि आंटी की लम्बी चौड़ी याचिका ने खड़े
कर दिए हैं कुछ ऐसे प्रश्न, कुछ ऐसी समस्याएँ
जिनका मेरे पास कोई समाधान नहीं। अपनी
याचिका के अंतिम पैरग्राफ में वे लिखती हैं -
जावेद हम सबका मुजरिम है, अपने पिता का,
मेरा, मिसेज़ कमला चावला का, मिस्टर योगेश
चावला का और भारत सरकार का। वह स्वयं
अपने को क्षमा नहीं कर सकता । कभी मुझसे क्षमा
माँगता है, कभी सज़ा ! मैं उसकी माँ, न उसे माफ़
कर सकती हूँ, न सज़ा दे सकती हूँ। बेटे की सज़ा
माँ भी तो झेलती है। मिसेज़ कमला से पहले ब॒ज
मेरे पति थे। वे माँ, बेटा उसे कभी क्षमा नहीं
करेंगे। भारत सरकार का क्या रवैया होगा, सोचकर
डर लगता है।
असली मुजरिम पाकिस्तान में है। वहाँ के
धर्मान्ध सरकारी चमचों का खिलौना बना मेरा
जावेद। न वे मुजरिम भारत सरकार को मिलेंगे
और न पाकिस्तान में हुए जुर्म के सबूत। में क़ानूनी
दाव-पेच नहीं जानती फिर भी समझती हूँ कि मेरी
याचिका जावेद का इक़बाले-जुर्म नहीं माना जा
सकता।
भारत सरकार कहती आई है कि जो आतंकी
हथियार छोड़कर सामने आ जाएंगे, उन्हें क्षमा कर
दिया जाएगा और वे फिर से समाज की मुख्यधारा
में शामिल हो सकेंगे । जावेद सरकार की इस कसौटी
पर पूरा उतरता है और हर तरह से दया का पात्र है
। जैसे गल गल कर सोना खरा होता है, पश्चाताप
को अग्नि में जलकर फ़ीनिक्स की तरह राख से
एक नया जावेद उठ खड़ा हुआ है। भारत के कौमी
निशा में अंकित गुरुमन्त्र 'सत्यमेव जयते ' से प्रेरित
होकर मैंने निसंकोच सत्य उगल दिया है। मगर
जावेद कहता है कि अम्मी आप फ़िज़ूल कागज़
काला कर रही हैं। सरकारें जो कहती हैं, वो करती
नहीं। मेरा भी यही प्रश्न है कि कौमी नि्शों का यह
गुरुमंत्र क्या महज़ दिखावे का है?
पाकिस्तान का इल्ज़ाम है कि मैं भारतीय जासूस
हूँ। ऐसा होता तो क्या भारत सरकार इस रहस्य में
मेरे साथ शामिल न होती ? मैं तो भारत की नागरिक
भी नहीं।
मैं अब भी अपने को भारतीय मानती हूँ। ब्रजेश
चावला विख्यात भारतीय थे। में भी भारतीय थी।
मैंने अपनी भारतीयता त्यागी नहीं थी। वह मुझसे
एक बलात्कारी ने छीन ली थी। अब दुनिया की हर
न्याय-व्यवस्था से दूर वह अपनी कब्र में दुफन
है। जावेद को भारतीयता भी उसके जन्म से पहले
ही उससे छीन गई थी। मुझे भारत का वीज़ा या
असाइल्म नहीं चाहिए। मेरी अपील है कि हमें
हमारी भारतीयता वापस करो । जो भी अनर्थ हुए हैं
कभी न होते और हम एक सुखी परिवार होते, यदि
विभाजन के समय में भी अपने पति के साथ भारत
आ सकती।
देश विभाजन जनित परिस्थितियों का शिकार
एक मासूम मुजरिम, जावेद अनजाने में अपने पिता
की हत्या कर बेठा। मैंने अपनी याचिका में यही
समझाने का प्रयत्न किया है।
दो सरकारों की चक्की में आ फँसे हम माँ बेटा !
भारत सरकार के हाथों में हैं हमारा निस्तार। आशा
है फैसला हमारे हक में होगा।
विनीता,
रश्मि चावला
मैं अपना दोष स्वीकारती हूँ कि रश्मि आंटी
की अर्ज़ी पढ़े बिना, उनकी बेवस भीगी आँखें पढ़
लीं और झूठा ब्यान दे बैठी कि में उनकी पूरी मदद
करूंगी । बस सोच लिया कि परिस्थितियों के मारे
ये बेगाने लोग, दरअसल है तो अपने ही। मेरे ही
हाथों में कुछ भी नहीं। एक तरफ है आंटी की
कागज़ पर लिखाई और दूसरी तरफ पत्थर की
लकोरें। अंधे कानूनों को और उनके तहत गढ़े गये
अंधे नियमों की।
“मासूम मुजरिम', जावेद भारत आ भी जाए
तो उसका फैसला हमारी न्याय - संहिता के अनुकूल
किसी कोर्ट कचहरी में होगा । ... और रश्मि
आंटी? हमारे कानून और नागरिकता - नियमों में
कोई सीधा, टेढ़ा उपाय नहीं है कि विभाजन के
इतने वर्षों बाद उन्हें भारतीय नागरिकता मिल सके।
यहीं हैं वे कमबख्त चार दिन जिनमें मैं बहुत
छोटी हो गई हूँ। मैं अपने आफिस में हूँ। रश्मि
और जावेद से पाँच बजे मिलने का वायदा है।
वायदा “पूरी मदद' का। .. बस कह दिया, सब
ठीक हो जाएगा। क्या ठीक हो जाएगा? ज़्यादा से
ज़्यादा मैं उनकी याचिका दिल्ली भेज सकती हूँ।
वहाँ मेज़ों के बीच भटकते फिरेंगे ये कागज़ के
टुकड़े। वहाँ इंसान भी कागज़ समझे जाते हैं। ...
16 अप्रैल-जून 2013
फिर महीनों बाद फैसला आयेगा जो मैं अभी जानती
हूँ।
पाँच बजने वाले हैं। वे माँ-बेटा अब आते होंगे
और मेरे दिमाग़ में है ख्यालों का बवंडर। क्या
कहूँगी मैं उससे और कैसे कहूँगी? .. और जो मैं
कहूँगी, वे सुन पायेंगे ? आंटी तो जैसे बुझ जायेंगी।
जावेद को मेंने कभी नहीं देखा । उसे में नहीं जानती ।
कल्पना में है उसकी तस्वीर। उसकी आवाज़ भी
मेरे कानों में गूंज रही है , अम्मी, मैंने कहा था न
कि सरकारें जो कहती हैं, करती नहीं। कुंद छुरी
से हलाल होने, हम यहाँ क्यों आये हैं?'
मैं सर से पाँव तक काँप जाती हूँ .. कागज़ के
टुकड़े नहीं हैं ये लोग .. जीते, जागते इंसान हैं ...
जीती जागती सच्चाइयाँ।
कमला आंटी और योगी से आमने-सामने तो
बात होगी नहीं। जब भी कहना है, जो भी कहना
है, फोन पर कहना है। लेकिन कब और कैसे?
फोन पर दिया गया अपना कल वाला फ़रेब ' अंकल
ज़रूर आ जायेंगे ' मैं कब तक पालूंगी? कब और
कैसे उन्हें बताऊंगी कि ब्रजेश चावला अब इस
दुनिया में नहीं हैं। वे कभी नहीं आयेंगे।
इसी उधेड़-बुन में घबराई सी आँखें मूंदे कुर्सी
पर पीठ लगाए बैठी सोच रही हूँ। माथा, पसीने से
तर- बतर है। मैं पसीना पोंछती हूँ। मुझे अभी एक
और फ़रेब गढ़ना पड़ेगा। एक सरकारी फार्मूला है
मेरे पास...वही चलेगा। फ़ॉर्मूला पुराना है, मगर है
ज़बरदस्त। हमारे दफ्तरों में इसे ' स्लो पॉयज़निंग '
भी कहते हें।
मैं फ़ोन उठाती हूँ --
“'रिशेष्निस्ट ?'
“यस, मेडम ।''
“पाँच बजे मिसेज़ रश्मि चावला और मिस्टर
जावेद क़ुरैशी मुझसे मिलने आएँगे ।''
“मैडम, दोनों यहाँ खड़े हैं। आपके पास भेज
द
“नहीं, कह दो मैं उनसे नहीं मिल सकती।
उनका मामला विचारधीन है।''
किन फ़रेबों में जी रही हूँ में !
तेरा क्या होगा, नीलिमा खरे? ये सच्चाइयाँ
और तेरे झूठ! इनमें घिरी अपने झूठों के साथ तू भी
चक्की के दो पाटों में फँसी बैठी है।
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