हिंदी चेतना ,अंक -55,अप्रैल - जून , 2012 | - MAGAZINE - ISSUE 54 - APRIL-JUNE 2012

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है । यह भी ज़रूरी नहीं है कि यदि हमारे दादा या पिता लेखक थे या हैं तो उनकी औलाद भी इसी विधा को अपनाएगी । आपके साथ बराबर शोषण या अन्याय होता रहा हो और कोई कहे कि उस स्थिति में भी आप लेखन में आते हैं तो यह बात भी नहीं है । मेरे विचार से लेखक बनना एक 'गॉड गिफ्ट' है, जो स्वाभाविक तौर से आपका रुझान इस ओर ले जाता है । मैंने आपके पहले प्रश्रों में अपने लिखने को जो कहानी आपको बताई, वह यहाँ तक मेरे लिखने तक की प्रक्रिया थी । मैं यह भी मानता हँ कि जब हम लिखना शुरू करते हैं, तो बहुत सी चीज़ें हमारे साथ चलती जाती हैं | आपको जब भी कोई घटना या चीज़ हांट करने लगती है, तो भीतर ही भीतर किसी न किसी रूप में बाहर आने को छटपटाती रहती है । इस छटपटाहट को जहाँ हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से व्यक्त करता है, वहाँ लेखक इसे अपनी रचना बना लेता है । वह किसी भी विधा में हो सकती है । आज लिखना और पढ़ना मेरे जीवन का एक अंग बन गया है । मैं इसे भी एक ज़रूरी उत्तरदायित्व समझकर निभा रहा हूँ । प्रश्न : कुछ ऐसा जो कि आज तक कहा नहीं गया और आप महसूस करते हैं कि कहा जाना चाहिए । उत्तर : ऐसा तो सुधा जी कुछ नहीं होगा जो किसी न किसी रूप में कहा नहीं गया होगा । हम सभी उसी की पुनरावृत्ति तो कर रहे हैं अपने- अपने तरीके और अंदाज से । इसके बावजूद एक बात ज़रूर सोचता रहता हूँ कि काश ! भारतवर्ष के हज़ारों मंदिरों के बीच एक साहित्य का विशाल मंदिर भी होता जिसके मध्य हम प्रेमचंद और दूसरे हिंदी के महान लेखकों की मूर्तियाँ स्थापित करते और उनकी पुस्तकें उनके 'गणों' की तरह वहाँ सजी रहती । प्रसाद में पुस्तकें मिला करतीं । पाठक भक्त वहाँ आकर खूब भेंट चढ़ाते, जिससे साहित्य फलता-फूलता जाता । काश ! कि हमारे पास हिंदी साहित्य का एक विशाल मंच होता, मिल कर सभी एक ऐसी पत्रिका निकालते जो घर-घर पहुँचती, साहित्य की अपनी एक संसद होती , उसका अपना एक चैनल होता, जहाँ 24 घंटे 24 रिपोर्टर सिर्फ साहित्य की बात करते, बहसें छाइव दिखाई जातीं । प्रगतिवाद, जनवाद, क्षेत्रवाद, दलित और सवर्णवाद सहित प्रवासी साहित्य के बजाए सिर्फ हिंदी और हिंदी के साहित्य और लेखकों को बात होती ? प्रश्न / हरनोट जी, काश / ऐसा हो पाता...अच्छा यह बताएँ कि साहित्य के एक मुकाय पर पहुँच कर आप स्वयं को कहाँ पाते हैं । उत्तर : सुधा जी ! सच कहूँ तो मैं आज भी अपने आप को वहीं खड़ा पाता हूँ जहाँ पहले था, यूँ कहूँ कि साहित्य का एक विद्यार्थी जिसे अभी बहुत कुछ सीखना है और पढ़ना है। प्रश्न : विदेशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य पर में आपको विचार जानना चाहती हूँ । आपने किस-किस लेखक व कवि को पढ़ा है । और आप उनके बारे में क्या सोचते हैं? उत्तर : सुधा जी, मुझे विदेशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य के लेखकों से पहली बार वर्ष 2003 में कथा यू० के०/ श्री तेजेन्द्र शर्मा के माध्यम से परिचित होने का अवसर मिला, जब में लंदन अन्तरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान लेने गया था । वहाँ के तकरीबन सभी लेखकों से उस समय परिचय हुआ और उनके काम को देखने-समझने का भी अवसर मिला। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि तेजेन्द्र शर्मा जहाँ ब्रिटेन में हिंदी के प्रचार- प्रसार के लिए तन, मन और धन से काम कर रहे हैं वहाँ विदेश में रह रहे हिंदी लेखकों को भारतीय लेखकों सहित हर वर्ष सम्मानित भी किया जा रहा है।इसी दौरान वहाँ मेरा परिचय पदमेश गुप्त, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, मोहन राणा, अचला शर्मा, उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, दिव्या माथुर, गौतम सचदेव, प्राण शर्मा, शैल अग्रवाल, सोहन राही से हुआ( कई नाम छूट भी सकते हैं)। तेजेन्द्र शर्मा से ही मेंने अन्य देशों में हिंदी के लेखकों के कुछ परिचय भी लिए। उन दिनों इन्टरनेट की तीन ई-पत्रिकाओं हिंदी नेस्ट, साहित्य कुंज, अभिव्यक्ति से भी परिचय हुआ। वास्तव में इन्टरनेट का इस्तेमाल भी इसी दौरान सीखना शुरू किया था। इन पत्रिकाओं में निरन्तर विदेशों में रह रहे हिंदी के लेखकों की रचनाएँ देखने -पढ़ने को मिलती रही | उसके बाद कृष्ण कुमार द्वारा निकाली जा रही पत्रिका ' अन्यथा ' भी पढ़ने को मिलती रही और बहुत अच्छा लगा कि विदेशों में हिंदी के लिए इतना काम हो रहा है। उसके बाद भारत से निकलने वाली पत्रिकाओं में हित 16 अप्रैल-जून 2012 भी विदेशों में लिख रहे लेखकों की तलाश रहती। इसी तरह तकरीबन सभी से परिचय हुआ। उसके बाद वर्तमान साहित्य, ज्ञानोदय के साथ कई अन्य पत्रिकाओं ने प्रवासी साहित्य पर विशेषांक निकाले, जो महत्वपूर्ण थे । अब तो कई और ई -पत्रिकाएँ भी वहाँ के लेखक निकाल रहे हैं । शैल अग्रवाल 'लेखनी नेट” निकाल रही है। सुधा जी आप को पत्रिका ऑनलाइन और मुद्रित दोनों तरह से है । *गर्भनाल' प्रवासी भारतीयों की पत्रिका बहुत मेहनत से निरंतर निकल रही है। जिन लेखकों की रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं उनमें आप के साथ सुषम बेदी, उमेश अग्निहोत्री, अनिल प्रभा कुमार, धनंजय कुमार , गुलशन मधुर, कृष्ण बिहारी, इला प्रसाद, अभिमन्यु अनंत, अनिल जनविजय, आशा मोर, भावना सक्सेना, पूर्णिमा वर्मन, शालीग्राम शुक्ल, रेणु राजवंशी गुप्ता, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, विशाखा ठाकर, लक्ष्मीकांत मालवीय और अर्चना पैन्यूली शामिल हैं । बहुत से नाम रह गए हैं उसके लिए क्षमा चाहता हूँ । आप सभी की रचनाओं में विदेशों में रहते हुए भी अपनी मिट्टी के लिए अपार ख्रेह और आदर मौजूद है । यहाँ घट रहे अच्छे-बुरे का सुख और बेदना उनमें भरी पड़ी है और इसके साथ हिंदी और हिंदी साहित्य के लिए लगातार काम करने का जुनून आप सभी में मौजूद है, जिसके लिए आप सभी को साधूवाद देना चाहता हूँ । इसके बावजूद जो यह ' प्रवासी ' शब्द आया है कि प्रवासी लेखक, प्रवासी साहित्य इससे बहुत दर्द सा दिल में उठता है कि एक भाषा और उसे रचने वाले लेखकों के लिए आज इतने 'कोने' कैसे ईज़ाद हो गये हैं ? शायद हमने अंग्रेज़ी के लेखकों को इस तरह के “ताज ' से कभी नहीं नवाज़ा तो फिर हिंदी भाषा के लेखकों के साथ ही ऐसा क्‍यों ? हरनोट जी, यह प्रश्न तकरीबन बहुत से लेखकों के मन में उठता है । हिन्दी साहित्य में कथी छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद तो कथी खी विमर्श, दलित वियर्श अर्गों वियर्श और फ्लो विमर्श और अब प्रवासी साहित्य । प्रवासी साहित्य पर तो काफी चर्चा चल रही है शायद कोई दिशा मिल जाए । आप ने हिन्दी चेतना को अपना अगयूल्य समय दिया, हप आप के बहुत आभारी हैं । की




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