हिंदी चेतना ,अंक -64, अक्टूबर - दिसम्बर 2014 | - MAGAZINE - ISSUE 64 - OCT-DEC 2014

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आलोचना का अंतरंग िायाञवधयअ पता पपयापता ना ८ पहला यत पता कथा-आलोचना विशेषांक अर्चना वर्मा जे-९०१ हाई-बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डन, अहिंसा खण्ड-२, इन्दिरापुस्म, गाज़ियाबाद, पिन-२०१०१४ 16 हिल अक्टूबर-दिसम्बर 2014 कहानी-अब और आलोचना कहानी की अर्चना वर्मा जिन दिनों हम विद्यार्थी हुआ करते थे उन दिनों पहले से, पता नहीं कितना पहले से, शायद कथालोचन के शुरू-दिन से, चली आती कथा- आलोचना “तत्त्वदर्शिनी ' हुआ करती थी और गिनती में पंचतत्त्तों से भी एक बढ़ाकर, छह तत्त्वों मे विहार करती थी-कथावस्तु, पात्रयोजना और चरित्र चित्रण, कथोपकथन, देशकाल और वातावरण, भाषा-शैली, उद्देश्य वह तत्त्वदर्शिता तभी यानी हमारे विद्यार्थी काल में हास्यास्पद होने लगी थी । उसके चुटकुले बनने लगे थे। हालाँकि आज सोचती हूँ तो लगता है कि संयोजन-कौशल की नापजोख और विश्लेषण के नज़रिये से देखा जाए तो बात उतनी हास्यास्पद थी नहीं जितनी तब प्रतीत होती थी, क्योंकि तब छात्रोचित (अधिकांशत: अध्यापकोचित भी) व्यवहार में आलोचना को तथाकथित तत्त्वों के सपाट विवरण-वर्णन में विघटित कर दिया जाता था और छह के छह तत्त्वों के मौजूद होने या एकाध के घट-बढ़ जाने को मूल्यांकन की कसौटी मान लिया जाता था। लेकिन आज सचमुच गंभीरता से लगता है कि उस “ तत्त्वदर्शन ' को उस वर्णन-शैली से मुक्त करके विश्लेषण-शैली में अवतरित किया जाए और एक बार फिर कम से कम आजमा कर तो देखा जाए। (१) 'कथानक ' में वस्तु और कथा का तालमेल, (२) 'पात्रयोजना और चसख्त्र-चित्रण में वस्तु के अनुकूल पात्रों के चुनाव का औचित्य, व्यक्ति और परिस्थिति के घात-प्रतिघात से चरित्र की कार्यान्विति, (३) 'कथोपकथन' में पात्र की अपनी आन्तरिक लय और अन्यों के साथ सम्बन्ध की टोन, (४) 'देशकाल और वातावरण ' में कहानी कथा-आलोचना विशेषांक के भीतर और बाहर के 'समय' की पकड़ के समीकरण, (५) 'भाषा-शैली ' में वृत्तान्त की टोन और वृत्तान्तकार के खड़े होने की जगह का समीकरण और (६) 'उद्देश्य' में वस्तु और अन्तर्वस्तु की जोडु-बटोर और निर्वाह-यूँ इन पुराकालीन परम्परागत छह के छह तत्त्वों के भीतर अब तरल और अमूर्त होती जाती आलोचना को टाँगने के लिये शायद ज़्यादा ठोस और मज़बूत खूँटियाँ मिलेंगी जो लिखन्त यानी कहानी के भीतर के फैलावों को समेटने के लिये 'पढ़न्त' यानी समीक्षा को शीर्षक दे पायेंगी । उनके संयोजन और अनुपात में 'संरचना ' भी ढूँढ निकाली जा सकती है। नई समीक्षा के “संरचना ' वाले अर्थ में भी यानी कहानी के भीतर उसके अपने घटक “तत्त्वों ' का सम्बन्धजाल और देशकाल वातावरण वाले तत्त्व के अन्तर्गत समाजलशास्त्रीय अर्थ में भी 'संरचना' यानी कथा- समय के विन्यास में कहानी के बाहर के सामाजिक- राजनीतिक समय का अनुगुंजित बिम्ब। इस तरह संरचनावाद तक की आलोचनात्मक अवधारणाओं को कहानी की लिखन्त के साथ बहुत ठोस और पाठक के अनुकूल ढंग से जोड़ा जा सकता है। लेकिन जब तक आजमा कर देखा न जाए तब तक के लिये उस तत्त्वदर्शिता की संभावनाएँ यहीं स्थगित। बात मैं अपने विद्यार्थी काल की कर रही थी। वे नयी कहानी के दिन थे, “छात्रोपयोगी”' और 'अध्यापकीय ' के प्रति उपयुक्त वितृष्ण और अवमानना के दिन। “विचारधारा ' के शिकंजे का पहला दौर भी बीत चला था। अब कहानी की आलोचना में “अनुभव की प्रामाणिकता ',




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