हिंदी चेतना ,अंक -59, जुलाई -सितम्बर 2013 | HINDI CHETNA - MAGAZINE - ISSUE 59 - JULY-SEP 2013
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
65
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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विभिन्न लेखक - Various Authors
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अपने अधिकारों के प्रति अज्ञानता, अपने घरेलू
श्रम को कम करके आँकना, बचपन में विवाह,
विधवा हो जाने पर सामान्य जीवन जीने पर अंकुश
आदि ऐसी कुरीतियाँ थीं; जिसके चलते उन्हें शिक्षित
करना उस कालखंड की अनिवार्यता बन गई स्त्री
शिक्षित हुई । जागरूक होना स्वाभाविक था। लेकिन
बाहरी स्पेस में उनका काम स्कूल में अध्यापन
करने तक ही सीमित रहा। शिक्षा के बाद की दूसरी
सीढ़ी आई, उन्हें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया गया
और शिक्षण से आगे, बैंकों में, सरकारी दफ्तरों में,
कारपोरेट जगत में और अन्य सभी क्षेत्रों में स्त्रियों
ने दखल देना शुरू किया। आर्थिक रूप से हर
समय अपना भिक्षापात्र पति के आगे फैलाने वाली
स्त्री ने घर को चलाने में अपना आर्थिक योगदान
भी दिया। पर इससे उसके घरेलू श्रम में कोई कयैती
नहीं हुई । इस दोहरी ज़िम्मेदारी को भी उसने बखूबी
निभाया। माना कि भारतीय समाज में वैवाहिक
सम्बन्धों में बेहतरी के लिए समीकरण बदले हैं,
पर यह सब स्त्रियों के एक बहुत छोटे से वर्ग के
लिए ही है -जहाँ पुरुषों में कुछ सकारात्मक बदलाव
आए हैं। मध्यवर्गीय स्त्री के एक बड़े वर्ग के लिए
आज स्थितियाँ पहले से भी बहुत ज़्यादा जटिल
होती जा रही हैं।
जहाँ तक पश्चिम या दूसरे विकसित देशों का
सवाल है, तो वे कुछ प्रश्नों को हल करने की
स्थिति में हैं। वहाँ आर्थिक आत्मनिर्भरता अधिक
है और इसलिए सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर
पर स्त्री के प्रति नज़रिये में भी फ़र्क है। कम से
कम वहाँ स्त्री पुरुष का उपनिवेश नहीं है।
इसके विपरीत भारत और एशियाई देशों में
अभी स्त्रियाँ जाति और धर्म के कारण भी शोषण
का शिकार हैं। उनके प्रति सांस्कृतिक रत्ैया बहुत
दूषित है। उन्हें अभी आज़ादी की बहुत सारी सीढ़ियाँ
चढ़नी हैं। लेकिन आज स्त्रियाँ जिस तरह प्रतिकार
में खड़ी हो रही हैं वह देर-सबेर अपनी ज़मीन बना
ही लेंगी। यह उनके समय के आने की आहट है।
हमें इस आशावाद में जीने का और सकरात्मक
सोच का पूरा हक़ है।
साहित्य के वर्तमान को आप किस तरह से
देखती हैं।
किसी भी समय में उस वक्त लिखे जा रहे
साहित्य का उसी वक्त मूल्यांकन नहीं होता । उसका
सही मूल्यांकन कई दशकों के बाद ही हो पाता है।
आज जितने भी लेखक या लेखिकाएँ जो भी लिखते
हैं, लेखन के बाद उसको प्रमोट करने में जुट जाते
हैं। लेखक-लेखिकाएँ कहानियों को बढ़ाकर
उपन्यास बना दे रहे हैं, और वही-वही दस जगह
से छपवा रहे हैं। यह सब जोड़तोड़ साहित्य को
कहीं न कहीं नुकसान ही पहुँचा रही हैं। ये लेखक
और लेखिकाएँ तात्कालिक वाहवाही में यकीन
रखते हैं। साहित्य कोई मंच नहीं कि आपने इधर
कुछ सुनाया, उधर वाहवाही मिल गई। आपका
साहित्य आगे आने वाले पचास साल बाद भी बचा
रहे और आपके समय को दर्शाए, तभी उसका
महत्व है।
आज के इस माहौल में बदलाव की शुरूआत
आप कहाँ से देखती हैं कि जब कहानी पीछे
चली गईं और चेहरे सामने आ गए।
आज के समय की यह उिड्म्बना है। जैसे
उपभोक्तावाद दूसरी जगहों फिल्मों, मीडिया में है
जहाँ वो ब्रेकिंग न्यूज पकड़ ही नहीं लेते बल्कि
कई बार बना भी लेते हैं तो वही काम साहित्य में
भी हो रहा है। चूंकि हमारा वास्ता पिछली पीढ़ी से
हैं तो हमें यह अजूबा लगता है, लेकिन आज तो
यह होड़ मची हुई है कि कैसे दूसरे को धक्का
देकर आगे निकला जाए। जब साहित्य, साहित्य से
ज़्यादा लेखक पर केंद्रित हो जाता है तो यह नुकसान
तो होता ही है और इस नुकसान को अगर कोई
रोक सकता था तो हमारे संपादक। पर क्या कहा
जाए, हमारे बुजुर्ग संपादक की ही तो ये शुरुआत
की हुई है 'हंस' के पन्नों पर ही ये शुरू हुआ था
इसलिए मैं हमेशा उनके खिलाफ़ बोलती रही हूँ।
आज के समय में संपादकों का रवैया सही
नहीं है। इस वजह से भी लेखन में गिरावट आई है।
ऐसी लेखिकाओं की बहुत कमी है जो सचमुच
लिखने में यकीन रखती हैं। आज जो नयी लेखिकाएँ
लिख रही हैं वो ऐसा नहीं है कि अच्छा लिख नहीं
सकतीं लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ हमेशा
साहित्य का गला ही घोंटती हैं।
आज के दौर की ऐसी वो कौन सी महिला
कहानीकार हैं जिनमें आपको समय की धार के
साथ और धारदार होने की संभावनाएँ नज़र आती
हे
आज की लेखिकाओं में मधु कांकरिया ने समाज
16 जुलाई -सितम्बर 2013
के ज्वलंत विषयों और प्रश्नों को उठाया है और
बाकायदा पूरे शोध के बाद लेखन किया है। उनका
हर उपन्यास एक बिल्कुल अलग और प्रासंगिक
सवालों पर है। किसी भी लेखक के बरक्स उस
लेखन को खड़ा किया जा सकता है। कई महत्त्वपूर्ण
लेखिकाए हैं जैसे नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र,
कविता, नीला प्रसाद, वंदना राग, किरण सिंह,
स्वाति तिवारी, गीताश्री , जयश्री राय वगैरह ! इंदिरा
दांगी की भी कुछ कहानियाँ मुझे अच्छी लगती हैं।
लेखिकाओं की जमात ज़ोर-शोर से आ रही है पर
उनमें संजीदगी भी होनी चाहिए।
और पुरुष लेखकों में अगर बात करें तो .....
बहुत से युवा अच्छा लिख रहे हैं। जैसे पंकज
सुबीर, रामजी यादव, विमलचंद्र पांडे, मनोज पांडे,
गौरव सोलंकी, विवेक मिश्र, और चंदन पांडे को
पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। चन्दन पाण्डेय की
शुरूआती कुछ कहानियाँ बहुत अच्छी थीं । उसके
बाद चन्दन पाण्डेय की जो कहानी मैंने पढ़ी वो
उसने हिंगलिश में लिखी थी। वह कहानी में पूरी
पढ़ नहीं पाई, क्योंकि उस तरह की भाषा में कहानी
पढ़ने की हमें आदत नहीं है। अभी कहानी के नाम
पर 'पहल' में चन्दन पाण्डेय का जो बहीखाता
आया है, वह शोशेबाजी के अलावा कुछ नहीं।
उसको पढ़ने में दिमाग़ क्यों खपाया जाये। विधा में
इस तरह की तोड़-फोड आप नहीं कर सकते।
कहानी की सबसे पहली ज़रूरत है पठनीयता और
जब पठनीयता ही नहीं है तो कहानी कैसी !
अभी हाल-फिलहाल में 'हंस' पत्रिका में
आपकी कहानी राग देह मल्हार छपी है। आप
हंस पत्रिका और उसके संपादक का हमेशा
विरोध करती रही हैं तो उसी पत्रिका में अपनी
कहानी छपवाने का कारण ?
उस कहानी को राजेन्द्र जी छापने को कतई
तैयार नहीं थे। ऐसी कहानी जिसमें देह का राग
नहीं, छापने में उनकी क्या दिलचस्पी होती | बहाना
यह था कि यह बहुत लंबी है। उस कहानी में ज़ग
खुलासे से देह के गग अलापे जाते तो वह इससे
ज्यादा लंबी होती तो भी हंस के पहले पन्नों पर
विरणाजती। मैंने कहा -जब हंस के सोलह पन्नों में
शाजी जमां की “जिस्म जिस्म के लोग”' जैसी
कहानी छप सकती है तो फिर इस कहानी की
लम्बाई पर आपत्ति क्यों । उनका आग्रह था -कहानी
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