प्राथमिक शाला में कला-कारीगरी की शिक्षा, भाग-1 | PRATHMIK SHALA MEIN KALA KARIGIRI KI SHIKSHA, BHAG 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भी होते हैं, जिनमें विद्यार्थियों द्वारा रंग भरवाया जाता है । कुछ खर्चीले विद्यालयों में चित्रकला अध्यापक भी नियुक्त होता है । ये अध्यापक अपने विद्यार्थियों को उसी तरह से चित्र बनाना सिखाते हैं, जिस तरह से प्राचीन शैली के चित्रकार अपने पास आने वाले छात्रों को सिखाते हैं । इस प्रकार दी जाने वाली चित्रकला-शिक्षा वास्तविक चित्रकला-शिक्षा नहीं है | इसमें विद्यार्थी चित्र नहीं बनाते | कहीं पर वे मात्र अनुकरण करते हैं, कहीं पर वे सिफ रंग भरते हैं, कहीं पर वे चित्रकार के बताये अनुसार चित्र खींचने की कुंजी जानकर उसी रीति से चित्र बनाते हैं | ऐसा करने से विद्यार्थी की चित्र बनाने की वृत्ति को गति नहीं मित्र पाती | सिर्फ परीक्षा के लिए या फिर शोभा के लिए विद्यार्थी अमुक-अमुक चित्र बनाते हैं | इसमें न तो विद्यार्थियों का शौक प्रतिबिम्बित होता, न उन्हें उस विषय की तैयारी में सिद्धहस्त बनने का अवसर मिल पाता | परिणामस्वरूप इस प्रकार का चित्रकला-शिक्षण शायद ही किसी को चित्रकारी की दिशा में ले जाए ! कुछ किंडरगार्टन शालाओं में चित्रकला विषय पढाया जाता है, पर वहाँ भी इस विषय का शिक्षण ऊपर की भाँति यंत्रवत रहता है | बालकों में चित्रकारी करने-सीखने की एक लहर-सी आती है और कुछ समय के लिए उन्हें कुछ करने-धरने को मिलता भी है, लेकिन चित्रकला के प्रति उनमें रुचि नहीं बन पाती । यह संभव है कि किसी बालक का चित्रकार-मन इन प्रयासों से शिक्षक की नजर में चढ़ का और शिक्षक उसे आगे बढ़ाने के लिए कोई खास योजना बनाये या बनवाये ! किंडरगार्टन शाल्ाओं में प्रारंभिक कक्षाओं में ही चित्रकला चले तो चले, जैसे-जैसे आगे बढते हैं वैसे-वैसे यड़ काम कम होता जाता है अर्थात्‌ चित्रकला को समुचित स्थान नहीं दिया जाता | जब तक छोटे बालकों को गणित आदि कठिन विषय अधिक समय तक पढ़ाया जाना शुरू नहीं होता, तब तक भले ही बालक चित्रकला विषय में कुछ टेढ़ी-तिरछी रेखाएँ खींचें या रंग बिगाड़ें | ऐसी उदार हि कप की वजह से जहाँ-तहाँ थोड़ी बहुत चित्रकला की पढाई चलती है या चलाई जाताह । के का विपरीत नूतन शिक्षण प्रणाली के अनुसार चलाये जाने वाले बाल दिरों में चित्रकला विषय को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है, यही नहीं, वहाँ के 28 प्राथमिक शाला में कला-कारीगरी की शिक्षा बालकों के लिए चित्रकला एक अत्यंत प्रिय विषय बन जाता है। यह बात प्रयोगों के द्वारा सिद्ध हो चुकी है कि बाल-शिक्षण में चित्रकला विषय बहुत जरूरी और महत्त्वपूर्ण है। बाल मंदिरों ने बालकों में विद्यमान स्वाभाविक आंतरिक शक्ति को विकसित करने के लिए इस विषय को अल्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है और बालकों को इस विषय के द्वारा बड़े अच्छे परिणाम मिल्ने हैं। बाल मंदिर में किये गये अपने प्रयोग के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि बालक हजारों चित्र बनाने में सक्षम हैं। चित्रों के माध्यम से बालक अपने रंगों और रंगों के अवलोकनों, उनके संबंध में अपनी घसंद-नापसंद, अपनी सुरुचि और संस्कारिता सुस्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं। उसके द्वारा वे अपनी सर्जनात्मक वृत्ति को आगे बढ़ाते हुए संतोषपूर्वक सर्जक बनने के साथ-साथ कलाकार बनने के मार्ग पर चलने लगते हैं। बाल मंदिर में हजारों चित्रों का संग्रह है। वे चित्र बालकों की चित्र-प्रस्तुति तथा उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान उनके मन के संबंध में अद्भुत और नयी-नयी बातें कहते हैं। वस्तुतः उन चित्रों के विवेचन-विश्लेषण के लिए अलग से ही एक सचित्र पुस्तक प्रकाशित किये जाने की जरूरत है। पर अपने प्रयोगों के द्वारा मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि विद्यार्थियों के जीवन में चित्रों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। उनके ज्ञान के विस्तार और उनकी कला दृष्टि की व्यापकता एवं विशिश्ता के लिए चित्रों का ज्ञान बहुत महत्त्व रखता है। अपने प्रयोग के आधार पर मैं बताना चाहता हूँ कि प्रत्येक विद्यार्थी को जिस प्रकार भाषा, इतिहास व गणित आदि विषयों का ज्ञान पहले से ही दिया जाता है, उसी प्रकार चित्रकला का ज्ञान भी पहले से ही दिया जाना चाहिए। भाषा का ज्ञान वाइमय की आधारभित्ति माना जाता है, ठीक वैसे ही चित्रकला का ज्ञान लगभग सभी कलाओं की बुनियाद है। चित्रकारी अर्थात्‌ स्थल व काल के साथ दृश्य-जगत को रंग-रेखाओं के माध्यम से अपने यथार्थ रूप में फलक पर प्रस्तुत करना। यह फलक अंतरिक्ष, भूमि, पत्थर, लकड़ी, धातु, कपड़ा, कागज आदि-आदि बन सकते हैं। इन समस्त फलकों पर रेखाओं एवं रंगों की मदद से प्रतीत होने वाला सौंदर्य ही चित्र है। चित्रकला में अनेक प्रकार की कलाएँ आ जाती हैं जैसे--नृत्य, शिल्प, खुदाई, रंगोली, कसीदाकारी, आकारों को गहरे दबा कर उतारना (इसप्प्रेसिंग) या उभारना प्राथमिक शाला में चित्रकला का शिक्षण 29




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