साफ़ माथे का समाज | SAAF MAATHE KA SAMAJ
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
138
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
अनुपम मिश्र -ANUPAM MISHRA
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अनुपम मिश्र
फिर से आधार बनाकर उन्होंने ग्राम सेवा और ग्राम विकास के पिछले छूटे
हुए कामों को उठाना शुरू किया। 1984 में भी ऐसे कुछ काम शुरू कर
के ही वे गांव से बाहर गए थे। इन कार्मों को करने के लिए कोई पैसा.
या बजट नहीं था। सार्वजनिक काम की कोई विशेष समझ भी तब नहीं
रही होगी। जो काम लोगों ने तब करने बंद कर दिए थे, उन्हीं को
धीरे-धीरे फिर से शुरू करने का वातावरण बनाना था। इसमें गांव के
पशुओं की सेवा के लिए यीने का पानी जुटाना, खेती करना भी शामिल
था। कभो वे गांव के उपेक्षित चौक से सफ़ाई शुरू करते, तो कभी पूरे
दिन गांव के इस कोने से उस कोने तक बगरा हुआ गोबर उठाते और फिर
उसे रात को खेतों में डालते, कचरे को खाद में बदलते थे। इस काम
में उनके मित्र श्री समअवतार कुमावत भी साथ थे। ये दोनों युवक रोज
गांव के फूट चुके बड़े तालाब को देखते, लेकिन इसे ठीक कैसे करना
है, यह उनकी समझ और क्षमता से बाहर की बात लगती।
लेकिन फिर 1982 में एक दिन अचानक इन दोनों ने अपने कुदाल
फावड़े उठाए और लग गए बड़े तालाब को ठीक करने। कितने बरस
लगते उसे ठीक करने में, यह उन्हें नहीं मालूम था। लोगों ने उन्हें रोका
और समझाने की कोशिश की कि इस तरीक़े से कुछ होने नहीं वाला।
लेकिन तभी गांव के प्रतिष्ठित पुजारी स्वामी सियाराम जी भी धरती की
इस पूजा में शामिल हुए। फिर श्री श्योकरण बैरवा भी साथ हो गए।
चारों लोग मिलकर दिन भर मिट्टी खोदते और एक-दो पीढ़ी से टूटे
पड़े तालाब की पाल पर एक-एक टोकरी मिट्टी डालकर धीरे-धीरे पाल
ऊपर उठाने लगे। फिर कुछ दिन बाद इनकी मेहनत और धीरज देखकर
लापोड़िया के 15-20 और लोग भी साथ हो गए। एक से दो और अब
दो से बीस लोगों के हाथ लगे तो पहली बार इन सबने अपना दिमाग
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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया
भी लगाया। एक बैठक हुई और इसमें तय किया गया कि यह गांव
का काम है, तो पूरे गांव को बुलाना चाहिए।
गांव के घरों को जिम्मेदारी बांटी गई। सब मिलकर सबका काम
करें-ऐसी कड़ी जो टूट गई थी, अब फिर से जुड़ गई थी। गर्मी के
दो महीनों में सबने मिलकर बड़े तालाब कौ टूटी पाल को सुधारा। लेकिन
प्रकृति शायद अभी लापोड़िया कौ परीक्षा लेना चाहती थी।
पहली बरसात में ही तालाब फिर टूट गया। लेकिन लापोड़िया में वर्षो
बाद उभर रहे संगठन ने धीरज नहीं खोया। लाउडस्पीकर से आवाज देकर
पूरे गांव को इकट्ठा किया और मिट्टी से भरी बोरियां डालकर टूटी हुई पाल
को किसी तरह संभाल लिया। आमने वाले वर्षों में तरुण भारत संघ ने इस
बड़े तालाब को ठीक करने में मदद दी। और तब दस वर्ष की तपस्या
के बाद लापोड़िया को बड़े तालाब का फिर से वरदान मिला। तालाब में
इतना पानी रुका कि उसके नीचे के खेतों से धीरे-धीरे बहुत से परिवारों
को सुधरती खेती से कुछ कहने लायक लाभ भी मिलने लगा। उस समय
गांव के 100 बीघा, 100 बीगोड़ी में सिंचाई उपलब्ध होने लगी थी।
इसी बीच लक्ष्मण जी ने गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित 'आज
भी खरे हैं तालाब' पुस्तक पढ़ी। इसे उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी
पढ़ाया। सभी को लगा कि इसमें जिन परंपराओं का वर्णन है, वे उनकी
अपनी परंपराएं रही हैं। इसलिए उन छूटे हुए छोरों को फिर से अपने गांव
में मजबूती से अपनाना चाहिए।
बड़े तालाब को सुधारने के बाद फिर गांव में उससे पहले बने दो छोटे
तालाबों को भी सुधारने का काम हाथ में लिया। तीनों तालाबों ने यहां होने
वाली वर्षा को अपने ख़जाने में भरना शुरू किया और फिर उसे गांव के
कुओं के माध्यम से साल भर तक उपयोग में लाने का रास्ता खोला।
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