हिंदी चेतना ,अंक -55, जुलाई 2012 | HINDI CHETNA- MAGAZINE - ISSUE 55 - JULY 2012

HINDI CHETNA- MAGAZINE - ISSUE 55 - JULY 2012 by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaविभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विशाल डॉक्टर को छोड़कर जब तक हवेली वापस लौटे थे, सूरज डूब चुका था, पर हवेली के बरामदे की बत्तियाँ नहीं जल रहीं थीं। भीतर से भाभी की रोने की आवाज़ें आ रहीं थीं। हवेली के आँगन में कुछ औरतें, भाई साहब के दो ख़ास कारिन्दे और दाई, जिसे डॉक्टर के जाने के बाद जचकी के लिए बुलाया गया था, बैठे थे। भाई साहब भाभी के पास कमरे में थे। आँगन के बीच में एक बड़ा राजस्थानी घड़ा रखा था, जिसपर कच्चे पर चटक रंगों से फूल-पत्तियाँ बनी थीं। हवेली में एक भयावह सन्नाटा तैर रहा था। आज विशाल को उस घड़े पर बने फूल, उसकी गर्दन पर बने बेल-बूटे अच्छे नहीं छग रहे थे। दाई ने उठते हुए कहा, '' मरी हुई छोरी जनी है बींदड़ी ने!” और आगे बढ़ते हुए काला कपड़ा घड़े पर ढक दिया। भाभी के रोने की आवाज़ तेज़ हो गई। भाई साहब कमरे से बाहर आ गए। उन्होंने आँगन में बैठे अपने खास कारिन्दों को इशारा किया। दोनों उठकर घड़े की तरफ़ बढ़े। तभी घड़ा काँप उठा। मिट्टी का बेजान घड़ा। बेल-बूटों और फूल- पत्तियों वाला घड़ा। विशाल सोच रहा था क्‍या किसी और ने भी उस घड़े को काँपते हुए देखा है? घड़ा ही हिला था या धरती हिल रही थी। घड़े की ओर बढ़ते हुए दोनों आदमी ठिठक गए। घड़ा फिर हिला और लुढ़क गया। घड़े में भरा सफ़ेद, घर का पिसा, दरदरा नमक फ़र्श पर फैल गया। दो नन्‍्ही, नमक में सनी मुट्ठियाँ घड़े से बाहर निकल आईं। भाभी जो कमरे के चौखट से टिकी रो रही थीं, उनकी आँखें ऊपर चढ़ गईं। अब उनकी चीखें दहाड़ों में बदलने लगीं । विशाल को लगा जैसे हवेली की दीवारें उनकी दहाड़ों से थर-थर काँप रही हैं। वह घड़े से बाहर झाँकती नन्‍्हीं मुट्ठियों को घड़े से बाहर खींचकर सीने से लगा लेना चाहती थीं। वह उन्हें पकड़ने के लिए बढ़ीं भी, पर कमरे की चौखट को छोड़ते ही आँगन के फ़र्श पर मुँह के बल गिर पड़ीं। उनकी मुँह से निकली चीख़ कई विचित्र सी ध्वनियों में टूट गई, वह यदि कुछ साफ़-साफ़ बोल पातीं तो यही कहतीं “मार डाला मेरी बच्ची को '', लेकिन उस ध्वनि को समेट कर जोड़ा नहीं जा सकता था, क्योंकि अब वह असंख्य टुकड़ों में बट कर आँगन में तैरती हुई हवेली के बाहर पसरे अंधेरे में विछीन हो गई थी । पर उसके कुछ बारीक रेशे अब भी हवेली की दीवारों से टकरा कर उन्हें झनझना रहे थे। फर्श पर फैला नमक आँगन में खड़े लोगों की आँखों में चुभ रहा था। सब अंधे, गूँगे, बहरे बन कर खड़े थे। अगर कुछ बोल रहा था तो वे थीं दो नन्‍्ही-नन्ही नमक में सनी, घड़े के मुँह से बाहर झाँकती मुट्ठियाँ। विशाल काँपते पैरों से अपनी आँखें मलते हुए, घड़े की ओर बढ़े, पर भाई साहब ने उन्हें बीच में ही रोक दिया। भाई साहब के दोनों ख़ास कारिन्दों ने मुट्‌्ठियों को पकड़ कर वापस घड़े में ठेल दिया और मुँह पर काला कपड़ा बाँध दिया। औरतें भाभी को उठा कर कमरे में ले गईं। भाभी होश में थीं या नहीं कहा नहीं जा सकता। उनके दाँत भिंचे हुए, आँखें चढ़ी हुई थीं और हाथ-पाँव एक दम ठण्डे पड़ चुके थे। विशाल की आँखों के सामने जैसे अँधेरा छा गया था। अपनी पूरी शक्ति समेट कर वह अपने पैरों पर खड़े रह पाने को कोशिश कर रहे थे। उनके सामने जो कुछ भी घट रहा था, वह किसी दुःस्वप्न-सा धीरे-धीरे उनकी आँखों के आगे तिर रहा था। उनके कानों में अभी भी भाभी की चीखेों गूज रही थीं। उन्होंने ख़ुद को सम्भालते हुए सिर को झटका और हवेली के दरवाज़े की ओर लपके जहाँ से भाई साहब और उनके दो आदमी, आँगन के बीचों-बीच रखे उस घड़े को उठाकर ले गए थे।वह जब तक हवेली के बाहर पहुँचे, भाई साहब की जीप काला धुँआ पीछे छोड़ती हुई हवेली से बाहर निकल चुकी थी | वह पागलों की तरह, गिरते- पड़ते काले धुँए के पीछे भाग रहे थे। पर धुँआ उन्हें पीछे छोड़ कर फ़र्राटे से गाँव के बाहर बने उस मनहूस कुँए पर जा पहुँचा था, जिसके चारों ओर गहरा सन्नाटा था। कुँए की मुँडेर पर एक दीया रोशनी देने की नाकाम-सी कोशिश कर रहा था। भाई साहब की जीप जिस फ़र्राटे से कुए तक पहुँची थी, उसी फ़र्राट से वापस हवेली की ओर लौट गई । विशाल कुए की मुंडेर पर हाथ रखे हाँफ रहे थे। दीये की रोशनी में झिलमिलाते कुँए के पानी में बुलबुले उठ रहे थे। घड़ा डूब चुका था। ७ हित 16 जुलाई -सितम्बर 2012 विवेक मिश्र जन्म 15 अगस्त, 1970 चालीस से अधिक वृत्तचित्रों की पटकथाएँ भी लिखी हैं तथा दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों का निर्देशन भी किया है। “माटी का गुंबद' इनका पहला कविता संग्रह है तथा “दुनिया एक समंदर है' एक ग़ज़ल संग्रह है, जो हिन्दी अकादमी, दिल्‍ली के सहयोग से 2007 में प्रकाशित हुआ। सन्‌ 2009 में दिल्‍ली के शिल्पायन प्रकाशन से इनका कहानी संग्रह “हनियां तथा अन्य कहानियाँ' प्रकाशित हुआ, उनकी कहानियाँ 'हंस', “वागर्थ ', 'पाखी ', “परिकथा ', इंडिया न्यूज, आधुनिक साहित्य' जैसी राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। विवेक मिश्र को “उद्धव साहित्य सम्मान - 2006, ' अलकनंदा साहित्य मार्तण्ड सम्मान! - 2007 से भी सम्मानित किया जा चुका है। भारत-एशियाई साहित्य अकादमी द्वारा विवेक मिश्र की कृति “बोल उठे हैं चित्र' के लिए साहित्य सृजन सम्मान - 2009 दिया गया है। वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायाछय की बौद्धिक एवं साहित्यिक संस्था 'कवितायन' द्वारा भी उनके साहित्यिक लेखन के लिए विशेष सम्मान दिया गया है। हाल ही मैं विवेक मिश्र को अंजना युवा कहानीकार पुरुस्कार तथा परिचय साहित्य परिषद ( रशियन सेन्टर फार साइन्स एन्ड कल्चर से सम्बद्ध संस्था) द्वारा सत्य सृजन सम्मान भी दिया गया है। सम्पक :- 123-सी, पॉकेट सी, मयूर विहार, फ़ेज़-2 दिल्‍ली - 110 091 100: 98108531 28 शा: जांएश 503०९७७ए४०४॥००0.९०7




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