जीवन एक नाटक | Jeevan Ek Natak

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पन्नालाल पटेल - Pannalal Patel

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रघुवीर चौधरी - Raghuveer Chaudhary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका पंद्रह देनेवाला ईश्वर भी बीच में नहीं आ सकता। ऐसा है मानवीनी भवाई का सहदय पाठक के नाम आह्वान। और इस आह्वान की अभिव्यक्ति के लिए लेखक ने कैसा संविधान पसंद किया है? कैसी भाषा में प्रस्तुत की है यह समस्या? पन्‍्नालाल की भाषा मानो इस समस्या को प्रस्तुत करने के लिए ही यहां गढ़ी गई है। कुशल कलाकार को उत्तम शिल्प के लिए पहले से ही विविध साधन साफ-स्वच्छ व्यस्थित कर ले उसी तरह पन्नालाल प्रस्तुत कृति के लिए सिद्ध हो चुके हैं। नए शब्द नए वाक्य-प्रयोग अनोखी वर्णन छटा पृष्ठ-पृष्ठ पर पड़ी है। कोई भी प्रकरण खोलिए उसका शीर्षक देखिए और फिर संवाद वर्णन मर्म और वातावरण देखिए। मानवीनी भवाई किसान समाज की कथा है सो खेती के अलग-अलग मौसमों के हू-ब-हू वर्णन जगह-जगह पर उभर आए हैं आषाढ़ी तीज को रात को आसमान हिंडोल खाने लगा था। ढलती रात धरती पर आंधी का घमासान युद्ध मचा था। मुरगा बोलते ही धरती और नभ एकतार हो बेठे। और बड़ा सबेरा होते-होते तो वह मेह गर्जना करता डूंगरों की उत्तरी कतार में चला गया। वायु बवंडर और बिजलियां भी लश्कर के साथ जाते सामानों की तरह नदारद हो गए। एक रात में धरती ने मानो करवट ले ली। कल तो पृथ्वी की सांस भी घुट जाए ऐसी भाप निकालती थी जबकि आज इस पर लेटकर सो जाने का मन हो जाए ऐसी ठंडी नरम और मनोरम हो बैठी थी। जगह-जगह पर खोहें और डबरे छलक उठे थे जबकि मेंढक तो मानो भांति-भांति के सुर निकालने वाली चक्कियां हो? झंखाड़-सी दीखने वाली वह वनराजी इस एक ही रात में नवपल्लवित हो बैठी हो ऐसे आंखों को तृप्त करने वाला हरा रंग धारण करके मंद-मंद मुस्करा रही थी। पंछी भी...आसमान के किसी कोने से टोलियां बना-बनाकर उतर आए खेलने और बधाई गाने को-- पर अकेली धरती ही क्यों? भयंकर उग्र होकर बहता पवन भी तो आज शीतल हवा झल रहा था मुक्त हाथ से धरती की सुगंध को बिखेर रहा था कोपलों को हंसा रहा था शाखाओं को झूले झुला रहा था। नदी तट की सघन वनराजी में और दूर के डूंगरों में आंखमिचौली का खेल चल रहा था। और वह सूरज? कल तो व्योम की भदट्टी में जलता ज्वालाएं निकालता आग का गोला था। परंतु आज तो वह भी गुलाल उड़ाता हंस रहा था। इसके बाद लेखक पशुओं के आनन्द बेलों के डोलने बोआई के आनन्द में मस्त ग्रामनन आदि का वर्णन करता है। मानो सृष्टि में कहीं क्लेश नहीं- कहीं कुछ भी बेसुरा नहीं। और अब अकाल का वर्णन करते- दुख की चक्कोी मुश्किल दिन और ओखल में सिर राम प्रकरण पढ़िए।




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