संस्कृत - सूक्तिसागर | Sanskrit - Sukti Sagar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37 MB
कुल पष्ठ :
555
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)देवसूक्तयः
अपरापनानरीरीसीनीमीभीभीनीनीरीनीनीपम्रीजीजी री जीपी-सिश ना एीनी+ जीनी गनी जीजा बीनीनीजसीरशस-नीस् शीत री्नननी मिनी फकी-ीरीनीसीीनमीममीनी-कमीजीीसीजीसीरीनत की पग्मी अीरजी पीर उन जगनग
झादय्याते हसितं पितामह' इसि शअ्रस्तड्ु॒पालीति च
व्यापृत्त गुरारित्यय' दृहन इ्त्याविष्कता भौरुता।
पौलोमीपतिरित्यसूयितमथ वीडाचिनम्रश्रिया पायाप्रः
पुरुषोत्तमो-प्यमिति यो. न्यस्तः स पुष्पाअ्नसिः
॥ २॥ उसत्तिष्ठन्त्या' रतान्ते भरमुरगपतों पारिनेफेन
कृत्या धरत्वा चान्येन यासो विगलितकबरीभार-
मंसे चहन्त्या!। भूयस्तत्कालकान्तिद्धिगुणितसुरतप्री-
तिना शोरिणा घ! शय्यामालिझथ नीत॑ घपुरलसल-
सद्वाहु लदम्याः पुनातु ॥ ३॥ उत्तुज्गस्तनमएडलोपरि
लसतालम्बमुक्ता मणेरन्तर्षिम्बित मिन्द्रनी लनिक रच्छा -
याज्ुकारि चुति।। रूज्याव्याजमुपेत्य नम्नवदना स्पष्ट
मुरारेवपु पश्यल्ती मुविता मुदे<स्तु भयतां खद्रीर्चि-
घाहोत्सवे ॥ 3॥ फमलासनकमलेक्षणकमला रिकिरी-
टकमठभ्ृद्वा है: । चुतपदृकमलाकमला करक्षतकमला
देने क्गे उस समय लचषमीजी बश्रह्माजीको वेखकर हँस पढ़ीं,
शिवजीफों वेखकर सहम गई', इहृस्पतिजीको देखकर सक्रुचित
हो गईं, अप्लिदेवको देखकर डर गई', इन्द्राणीफे पति इनको
देखकर उन्हें कुछ इईंप्यां हुईं तथा पुरुषोच्तम भगवान् विष्णुको
जब देखा तो ल्जाकर प्रसन्नतासे सिर नीचा करके उन्होंने
फूल्ञोंकी जो भ्रश्नक्षि विष्णुजीपर 'धीरेसे छोड़ दी पद झापकी
रक्षा करे ।। २ ॥ रतिके पश्चात् अपनी वेहके भारकों एक हाथसे
शेषनागकी शैयापर रखकर उठती हुईं तथा दूसरे हाथसे अपने
खुले हुए वस्चोंकों सँभालती हुईं उन लच्मीजीका शरीर आपको
पविश्न करे जिनके सिरका जूदा खुल्लकर' कन्धेपर बिखर गया
था और फिर उसी छण रतिके लिये हुगुने चाव और सुन्दरताके
साथ भगवान् विष्णुने भ्ालससे शिथित्न बॉहोबाके जिस शरीरका
आाक्षिज्ञन करके उसे झपनी शैयापर खींच लिया था ॥ ३॥
विधाहके समय झपने ऊँचे-ऊँचे स्तनॉपर लटफती हुई माजाके
मोतियों और मणियोंमें भगवान विष्णुके नीले फमलोंकी
कान्तिके समान सुन्दर नोज़ी कान्तियात्े शरीरकी पडुृती हुईं
परछाई को लज्ञाक बहाने सिर नीचा करके ध्यानसे देखकर
प्रसक्ष ऐोती हुईं वे लक्षमीजी आपको सुख दे'॥ ४॥
फमक्षमें रहनेवाले बह्य, कसज़के समान नेन्नवाले विष्णु और
कमलके शाप्नु चन्द्रमाका मुकुट पहननेवात्वे शिव तथा कमल्ञको
धारण करनेवाले ऐरावत हाथीके घाहनवाल्े हन्त्र आदि जिनके
घरया-कम्रक्ञोंकोीं प्रणाम करते हैं तथा जो कमक़को धारण किए
रहती हैं, पेसी लच्ष्मीजी मेरा कक्याण फरें।| १॥ नीक्ते
१४
बन न्जीनीसीनानानी,
करोतु मे फमलम्॥५॥ फिज्लल्कराजिरिव नीससरोज-
लग्ना लेखेव काश्चनमयी निकषोपलस्था । सोदामिनी
जलवद्मणडलगा मिनीव पायावुरःस्थलगता फमला
मुरारे! ॥ ६॥ क्रीडाभिनज्नह्िरण्यशुक्तिकुद्द रे रक्तात्मना-
पस्थितान्हार हारमुदारकुछुमरसानव्याजभव्यात्षखेः ।
वीरश्रीकुचकुम्भसीजस्चि खिखतो वीरस्य पत्रावलीस्त-
त्कालोचितभावबन्धमधुरं मन्दृस्मित॑ पातुध।॥ ७ ॥
जयन्ति जगतां मातुः स्तनकुक्ुमबिन्द्वः । मुकुन्दाश्ले-
घर्ंफान्तकोस्तुमभीविशम्यिन! ॥ ८॥ तदपीकृता द्विर -
गणितगझरुडो हाराभिदंसविधिजेयति | फणशतपीत-
श्वासो रागान्धायाः थ्ियः केलि! ॥ ६ ॥ वन्तेः कोर-
किता स्मितैधिकसिता ज्ूविश्नमेः पत्ञिता वोभ्यों पन्न-
बिता नख्रे: कुखुमिता सीखाभिरदेलिता। उत्तुझस्तन-
मण्डलेन फलिता भक्ताभिलाषें हिता काचित्करपल्ता
ऑम्नीन्ीयानीऑऑ॑ीमीपी-नीनीफीनीीफीशीश-नीनीन्ीसनी तीन भार 'ऑफी्यअगिकीकी
रज़्वाले विष्णुजीके वत्त:सथलपर त्लेटी वे पीले रज़चाली लचमीजी
रक्षा करे' जो नीज़े कमलपर लगे हुए. पराग-सी, फसौटीपर
लगी सोनेकी लकोर-सी तथा मेघेंके बीचमें चमकती हुईं
बिजली-सी जान पड़ती हैं ॥६॥ खिल्लवाडमें ही फाड डाले हुए
हिरिण्यकशिपुके बक्षःस्थलरूपी सीपीमें भरे हुए रक्तरूपी फेशरके
रसको स्वभावसे ही सुन्दर नखरूपी तूल्तिकाओंसे विकाल-
निकाज्कर क्षक््मीजीके घीर॒( पुष्ठ ) स्तनोंपर चित्रफारी करते
हुए घोर ( गरुड़की सवारीवाले या शूर ) नृसिहजीकी उस
समयके भावसे अधिक सुन्दर मन्व मुस्कान आपकी रक्षा करे ।
भाव यह था कि हिरण्यकशिपु जैसे मदापराक्रमीके वक्षःश्थक्षको
भी फाड डालनेवाल्े मेरे ये ककोर भौर वीर नस जिन स्तनोंका
बाध्य होफर आदर फरते हैं उनकी कठोरता तथा बीरताफी क्या
सीमा हो सफती है ॥ ७ ॥ जगन्माता श्रीकणमीजीके स्तनोंपर
लगी हुईं कुक्रमकी उन बूँवॉंकी जय हो जो विष्याजीके झालिज्ञन
करते समय कौस्तुभ मणिके समान शोभित होती हैं || ८ ॥
कामके मदले अप्यन्त सतवाली होकर की जानेवाल्ी क्षक््मीजीकी
उस क्रीड़ाकी जय हो जिसमें शेषनागकों शय्या घना क्षिया गया,
जिसमें गरुड़फी कोई आड़ न की गछ्ठे, हारकी रकभोरसे त्रह्माको
भी चोट लगती गई और जिसमें धेगसे निकली साँसोंको शेषनाग
अपने सैकद़ों फर्योंसे पीते चले गए।।१।। देवताओं भौर असुरोसे
प्रणाम की जाती हुईं कल्प-घ्ृक्षकी ल्ताके समान वे समुद्गरफी
पुष्नी लक्ष्मीजी रचा करें जिनके दाँत ज़्ताकी कल्षियोंके समान हैं,
जिनकी मुस्कान ही उस छताका खिलना है, भौंहें कॉपलें हैं,
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