नरेश मेहता और उनका महाप्रस्थान | Naresh Mehta Aur Unka Mahaprasthan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.87 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. कृष्णदेव शर्मा - Dr. Krishandev Sharma
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नरेश मेहता श्रौर उनका महाप्रस्थान श्श बन्घ तु व्यक्ति के पुरुषार्थ ध्रौर सकत्प का तब कोई श्रर्थ नहीं । परचाताप ग्लानि तथा प्रिया की रक्षा न कर सकने की असमयथेता के कारण गजुन नाना प्रकार के प्रदन करते हैं । धर्मराज प्रकृति व्यक्ति समाज सांसारिकता आदि विपयों पर अपने विचार प्रकट करते है । युघिष्ठिर का विदवास है कि -- चस्तुध्नों से होन होते जाने का श्रर्थ है व्यक्तित्व से सम्पन्न होते ज ना । दुर्ग प्रासाद स्मृति भवन चारण प्रशस्तियाँ तथा भुठें इतिहास से अमरता नहीं मिलती 1 वर्तुत सारे मानवीय दुखों का आधार राज्य और राज्य व्यवस्था है किन्तु इससे मानवीय उदात्तता और करणा पर आाधृत घर्म का प्रतिपालन नहीं हो सबता । राज्य के लिये युद्ध पड़यन्त्र आदि के कुचक्र चलते रहते हैं । लोग इसे राजनीति कहते हैं किन्तु यह तो विपकन्या की मात्मजा है । जहाँ राज्य व्यवस्था को सर्वोर्पार माना जाता है वहाँ तो यह पृथ्वी एक कारागार में परिणत हो. जायेगी इसलिये व्यवित के निर्वाध विकास का मायोजन करना होगा ऐसे साधन उपलब्ध करवाने होगे जी माथिक विपमता के कारणा किसी मेधावी की दासता न करनी पड़े । किसी द्रोणाचार्य को अपनी मेधा किसी की सेवा में लगाने को वाघित न होना पड़े । भयमुक््त अभारमुक्त जीवन की परिकल्पना से ही जीवन का कल्याण सम्भव है । गौर इसी प्रकार वार्तालाप करते-करते बजुंन-युधिष्ठिर के वैचारिक सखा पाण्डवत्ता के मेरुदण्ड ने भी हिम समाधि ले ली । अघ शेप थी पाडण्डवता की रेह भीम । प्रज्ञा अग्नि सा युघिष्ठिर प्रध्नोत्तर करने में. असम आाने चाली घटना से परिचित मानों सब कुछ सह लेने को तत्पर थे । तभी भीम भी उस हिमनद में बहते चले गये । युघिप्ठिर सर्वथा एकाकी विराट भापाहीनता की स्थिति में होकर भी धर्मपथ पर सर्मापत होने को तत्पर भागे वढते जाते है और यहीं माकर दूसरा पवें विश्रांति लेता है । महीप्रस्थान का तीसरा पर्व स्वर्गपव है । युधिष्ठिर सर्वेधा बकेले रह जाते है । सम्पूर्ण वातावरश की शाँति उनके मानसिक चिन्तन को अवसद्ध नहीं कर पाती । एकान्त चिन्तन ही स्तवन वन कर फुट पड़ता हैं जिस प्रकार वनस्पतियां हिम के पाविद्य का स्पर्ण पाकर हिममय हो जाती हैं उसी प्रकार युघिष्ठिर भी स्वाहायात्रा पर बढ़ते जाते है । काल पुरप की लीला को स्वीकार करने को तत्पर शास्वत वीणा से उठने वाले प्रणवस्वर को सनसे के लिए आतुर युधिष्ठिर् स्वर्ग के सर्वेथा निकट पहुँच जाते हैं । किन्तु स्वर्ग का द्वार खुलने पर भी यात्रा के अन्तिम छोर तक साथ निभाने वाले इवान को छोड़कर
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