संवाद संग्रह | Sanwad Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
196
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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५३ मटारानी मीनलदेवीका न्याय
गरीब--महारानीजी | आप जैसी न््यायी और भपजाहित
करनेवाली ठेवी कभी जोर-जुल्म न करेगी। यह मुझे विश्वास
हैं। मेने यह भी स्थिर कर रखा है कि जान दूँगी, मगर
भ्रीपही न ढूँगी।
महारानी--थाई ! तुमने तो मुझे बढी चिन्तामें डाल दी!
बताओ तुम ऐसी हठ क्यों कर रही हो १ तुम उद्ध हो चली
ही तुम्हारे पीछे कोई नहीं है | इस लिए आज नहीं तो कुछ
दिन बाद यह जगह सरफारी ही होगी। ऐसी दशामें क्या यह
उचित नहीं है, कि तुम खुद ही झोपड़ी दे दो । निससे यहा
तालाब पकसा सुंदर बन जाय ।
गरीब--महारानीजी ! आप कहती हैं से। सय ठीक है; परन्तु
क्या मै आपसे छुउ पूरे ?
महारानी--होँ पूछो ।
गरीब--आपके एक पुत्र रन्न है | आपको फक्िसी वातकी'
कमी नहीं है। तो भी आप यह तालाय क्यो वनवाती हैं १
महारानी--इसलिए फ्रि, प्रजाझा हित हो और भ्रेरा नाप
हमेशा कायम रहे |
गरीब---यदि आप मुझे अभय वचन दें तो में अपने मनडी
यात कई |
महारानी--प्रीनलदेवी भमाफों हमेशा ही निर्भय रखती है |.
तुम जो कुछ सत्य यात हो से कहे |
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