कगार की आग | Kagar Ki Aag

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Kagar Ki Aag by हिमांशु जोशी - Himanshu Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गोमती जझटपट घर की ओर भागी । “तुमको अभी पटवारी ज्यू बुला रहे हैं....।” आगस्तुकों में से एक ने कहा । “क्यों बुला रहे हैं ?” “चोरी के मामले में कुछ पूछ-ताछ का चक्कर होगा !” पटवारी के: सहायक सटवारी ने तनिक रोब जमाते हुए कहा । “क्या पूछ-ताछ-- गोमती कुछ पूछे, उससे पहले ही माँ बोल पड़ी | “यह तो उन्हीं से जाकर पूछो ना! कानून-कचरी की कोई बात होगी । हमें क्या पता ? गोमती कुछ सोचती हुई बोली, “कहाँ बुला रहे हैं छाटी ?” “अपने डेरे में ।” “प्रिमा को भी वहीं बन्द कर रखा हैँ क्या ?” बूढ़ी माँ ने पूछा । “हाँ, उसने तो कबूछ कर भी लिया है....। “कया--ै “कि छीसे के कण्टर चुराने में उसका भी हाथ था। “तो फिर अव हमें बुलाकर क्या होगा ?” हताश स्वर में गोमती ने कहा । “तुम्हारे बयान ठीक निकले तो कौन जाने छोड़ दें [” “छोड़कर भी क्या होगा ? जब मन होगा, फिर बाँवकर ले जायेंगे । मुझे पता है कि पटवारी ज्यू उसे ही पकड़कर क्यों ले जाते हैं ? क्‍यों मुझे बुला रहे हैं ?” इतने में मल्‍ले घर से बुद्ध हरराम अपनी फटी हुई ऊनी टोपी ढीक करते हुंए भा पहुँचे, “ठीक ही तो कहते हैं सटवारी ज्यू 1 तू जाकर देख ले वहु ! सरकार-दरवार में नया होगा....।* 'हुं,” व्यंग्य से देखा गोमती ने, “नया ही दुनिया में होता तो आज हमारी यह कुगत होती ? हमारे लिए कुछ भी नहीं....। मैं तो अब गजार- देवता के थान में जाऊँगी । वहीं दो दाने अच्छत फ्रेंककर घात डालूगी। कगार की आर १७ २




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