नारी | Nari

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Nari by सियारामशरण गुप्त - Siyaramsharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ नारी पहुँचती । वहू नहीं आया, नहीं आया, तो न आने दो उसको । मेरा सच्चा' बेटा तू ही निकली । तू उससे जुदी नहीं है । नहीं है-नहीं है ! बेटा, घबरा मत, मैं सुत्तं में हूँ। अब मेरा दुख दद॑ सब दूर हो रहा है । अब बहुत देर नहीं है । रो मत । रोकर ऐसे समय क्या सुकते दुखी करेगी ? मेरा तो बुढावा आगया , लड़के को देखना । तेरा पुण्य तुझे सुखी रकखे ! उसी. रात जमना छोटे बच्चे के साथ घर में अकेली रह गई । उसे चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दिया । कैसे वह इस घर में निराश्रय होकर रह सकेगी ? उसे जान पड़ा, मानों उसकी समस्त बुद्धि का लोप हो गया है । यह उसके ऊपर अत्यन्त घातक प्रहार था । फिर भी लड़के को देखकर उसने अपने को संभाला । जो प्रहार पहले अत्यन्त भयडूर जान पड़ता है, वही अपनी चोट कर चुकने पर वैसा नहीं प्रतीत होता । उस समय वहू एक छोटे से स्थान में मरहम पट्टी से छिपाकर रख लिया जा सकता है । जमना को भी ऐसा ही करना पड़ा । कुछ प्रकृतिस्थ होते ही उसे मालूम हुआ कि जितना उसके घर में है, सब उसीका नहीं है। उसके ऊपर ऋण का एक बड़ा बोझ है । उस घर में इस ऋण का आगमन पहले पहल नवागत शिशु की ही तरह विज्षेष आनन्दोत्सव के साथ हुआ था । बच्चे निर्दिष्ट सीमा तक बढ़कर रुक जाते हैं, परन्तु ऋण को किसी सीमा का बन्घन कहाँ । वह बढ़ता जाता है, बढ़ता ही जाता है। यहाँ तक कि घर का छप्पर और दीवार भी उसका बढ़ना नहीं




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