भाग्यक्रीडा | Bhagya Krida
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाग्यक्रीडा / २३
भवन खास चम्पापुरी में भी थे, पर उनमें गंगदत्त कोई नहीं
था । अ्रत: अनुमान से ही प्रतिहार पछाईं पट्टी के किसानों की
बस्ती में गया तो संयोग से उसे गंगदत्त का घर मिल गया ।
राजसेवकों को देखते हो गंगदत्त को पसीना श्रा गया। उसे
भ्रपनी मौत दिखाई देने लगी । जब प्रतिहार ने राजाज्ञा सुनाई
तो गंगदत्त की पत्नी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की--
“इन्होंने कोई भ्रपराध नहीं किया है। इन्हें मत ले
जाओ | मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ |!
राजभक्त प्रतिहार ने कफहा--
“आप महाराज चन्द्रसेत के स्वभाव से परिचित तो हैं.
फिर भी इतने घवरा रहे हैं ! वे न्याय के लिए सब कुछ दाँव
पर लगाने वाले सुशासक हैं । ऐसे प्रजावत्सल सम्जाटू से डरता
श्रनुचित है । यह तो हमें भी नहीं मालूम कि उन्होंने क्यों
बुलाया है ।”
दूसरे राजसेवक ने कहा---
“यदि आप डरें भी तो भी विना जाये काम नहीं
चलेगा । वे इतने कठोर भी हैं कि राजाज्ञा का उल्लंघन सहन
नहीं कर सकते ।”!
गंगदत्त के पुत्र पिण्डक ने उसे आश्वासन दिया--
“ददूदू ! श्राप व्यर्थ डर रहे हैं। आपने क्या विगाड़ा
है राजा का? बीज वोने नहीं गए तो अपनी इच्छा। चलो
में भी चलता हूं श्रापके साथ ।”
पिता-पुश्र दोनों राजसभा पहुँचे । राजा चन्द्रसेन
User Reviews
No Reviews | Add Yours...