भाग्यक्रीडा | Bhagya Krida

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Bhagya Krida by मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाग्यक्रीडा / २३ भवन खास चम्पापुरी में भी थे, पर उनमें गंगदत्त कोई नहीं था । अ्रत: अनुमान से ही प्रतिहार पछाईं पट्टी के किसानों की बस्ती में गया तो संयोग से उसे गंगदत्त का घर मिल गया । राजसेवकों को देखते हो गंगदत्त को पसीना श्रा गया। उसे भ्रपनी मौत दिखाई देने लगी । जब प्रतिहार ने राजाज्ञा सुनाई तो गंगदत्त की पत्नी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-- “इन्होंने कोई भ्रपराध नहीं किया है। इन्हें मत ले जाओ | मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ |! राजभक्त प्रतिहार ने कफहा-- “आप महाराज चन्द्रसेत के स्वभाव से परिचित तो हैं. फिर भी इतने घवरा रहे हैं ! वे न्याय के लिए सब कुछ दाँव पर लगाने वाले सुशासक हैं । ऐसे प्रजावत्सल सम्जाटू से डरता श्रनुचित है । यह तो हमें भी नहीं मालूम कि उन्होंने क्‍यों बुलाया है ।” दूसरे राजसेवक ने कहा--- “यदि आप डरें भी तो भी विना जाये काम नहीं चलेगा । वे इतने कठोर भी हैं कि राजाज्ञा का उल्लंघन सहन नहीं कर सकते ।”! गंगदत्त के पुत्र पिण्डक ने उसे आश्वासन दिया-- “ददूदू ! श्राप व्यर्थ डर रहे हैं। आपने क्या विगाड़ा है राजा का? बीज वोने नहीं गए तो अपनी इच्छा। चलो में भी चलता हूं श्रापके साथ ।” पिता-पुश्र दोनों राजसभा पहुँचे । राजा चन्द्रसेन




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