निर्ग्रन्थ - प्रवचन | Nirgranth Pravachan

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Nirgranth Pravachan by चौथमल जी महाराज - Chauthamal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६० ) प्रभम अध्याय । अधर्मास्तिकाथ ( आगार् ) आफाशास्तिकाय ( कालो » समय ( पोग्गलमंतवों ) पुद्डल अर जीव (एस) ये छः ही द्रव्य वाला ( लोगुतति ) लोक है। ऐसा ( बरद।सिदि ) केवल ज्ञानी ( अशह६ >) शजलिखरा ने ( पणणुता ) करा दे । भावाथः है गे हम ! घमोसितिकाय [ यों ४10० शांत ६ ण्याता) छा गाजीता 0 80 891 ७ |10) 0७18४ ावालाफओ6 पता 0६ हुा॥९१ पलक वि. शीत छा लाता सावे गरक्ष 10. 1एॉ- कप ०६ श्राणी जा ] अर्थात जीत और जब पदार्थ को गमन करने में सदाय्य भूत हो! अधमोास्ति काय [०1० ०१ 198 हर 1)0700एएछ४ 00 #पो)ज॑शाा088 फछली 18 8 शोश्तेपा 06९ 7९४ 0 500ो कषप्पे गराक्ृाफ ] अथीत्‌ जीव आर अजीब पदार्थों की गति को अवरोध करने में कारण भूत एक वृदय है । ओर आकाश, समय, जड़ और चेतन इन छः द्वब्यों को ज्ञानियों ने लोक कद कर पुकारा है। घस्मो अदस्मा आगाए; दव्य इंक्रकमादिय । अखुतवाश य दृव्या णिय; काल पृश्गलजतवी ॥१४॥ घअन्चया।५+--४ इन्द्र भूति | (घम्मी) धर्मास्ति काय (अषह म्मों ) अधर्मोसित काय ( आग ) ्राकाशास्त काय (दुव्व) इन द्व्यों को (इक्तिक) एक एक दब्य (आहिये) कड़ा है (य) झार (कालो ) समय ( पुर्गक्ष जंतवो ) पुद्ुल एवं जीव इन द्रष्यों को ( अशंता|रिण ) अंत कहे हूँ ।




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