दृष्टान्त सरित सागर | Drishtant Sarit - Sagar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16.07 MB
कुल पष्ठ :
504
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. रामचरण महेन्द्र - Dr. Ramcharan Mahendra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)एक लाख रुपये के मूल्य का कोमती स्लोक तक ससुराल रहकर ही जायगी । अब आप आज्ञी दीजिये यहीं लज्जा सहूंगा । पिता--भारवि तू मेरा इकलौता पुत्न है । बड़ी मुसीबतों से तुझे पाल पोसकर गाज इस योग्य बनाया है। तेरी माँ तो तेरे बिना एक पल भी जीवित नही रह सकतीं । तेर वियोग से हमें कितना क्षोभ होगा इसका ततिंक अनुमान तो कर बेटा छो दर भारवि--नही पिता जी । मैं ससुराल चला । प्रायस्चित्त करना ही है मुझे तभी मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी । ( जाता है ) । पित्ता-लो लड़का जल्दबाजी में भाग गया । यीह नह जानता क्रि जल्दबाजो गलतियों की जननी है। यह दुष्प्रवृत्ति शक्ति और आत्म विश्वास को भड्ञ कर देती है। हाय । अब कया करू दूसरो झाँको शारवि ससुराल में (ससुराल में रहना लज्जा का जीवन है। पहले कुछ दिन तक तो ससुराल मे भारवि का बडा स्वागत सरकार हुआ । स्वादिष्ट भोजन मित्रो के समागम का सुख उनको दिया गया भोजन के अवसर पर स्त्रियां मजलगान करती । सभी उन्हे प्यार दिखाते । पर जब ससुराल यालो ने यह सुना कि भारवि बारह वर्षों तक यही रहते आये है तब उनका उत्साह रुण्डा पड़ गया। )..... भारवि--खित जोतते हुये) पिताजी ने ठीक ही सजा दी है । ससुराल में रहकर मुझे जो लज्जा और तिरस्कार मिल रहा है वही प्रायश्चित्तका रूप है । इस अग्नि में तपकर ही मेरीआत्मा
User Reviews
No Reviews | Add Yours...