संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ | Sanskrit - Shabdarth - Kaustubh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झशि (६ परीक्षा या जाँच जैसी कि जानकी जी की लंका में हुई थो ।--पवनः (पु०) ज्वालामुखी पदाढ़ । -मपुराणं ( न० ) १5 पुराणों में से एक । इसको सर्वप्रथम '्रन्निदेव ने वशिष्ट जी को श्रवण कराया | था; श्रतः वक्ता के नाम पर इसका नाम श्रर्नि- पुराण पढ़ा ।--प्रतिप्ठा ( खरी० ) शरण को विधानपूर्वक बेदी पर या कुण्ड में स्थापना; विशेषकर विवाह के समय ।--घ्रवेश! ( पु० -प्रयेशन ( न० ) किसी पत्िथ्रता का श्रपने पति के साथ चिता में बैठ कर सती होना ।-- प्रसनरः ( पुन ) चकमक पत्थर, जिसका टकराने से घ्राग ठत्पन्न होती है ।--वाहुर ( पु० ) घूम । ( चुनो ) ।--र्भ (न०) १ कृत्तिका नचत्र का नाम । २ सुवर्ण ।--छु (न०) १ जल । २ सुवर्ण ।--भूः ( पुन ) श्रर्नि से उत्पत्र | कार्सिकेय का नाम । --पणिः (पुर) सूर्यफान्तमणि । चकमक पत्थर ।-- मंथः (सन्धी (पुन) मंघर्न ( सन्यनम्‌ ) (न०) | रगद से भाग उत्पन्न करना ।--मान्यं (न०) कद्ज़ि- यत । कुपच | श्रनपंथ ।--सुखः (पु०9 १ देवता । २ साधारणतया प्राह्मण । ३. खट्मल् ।--प्रुखी ( खी० ) रसाईघर ।--युग ज्योतिपशाख के पाँच , पाँच वर्ष के १२ युगों में से एक युग का नाम । | --रत्ताएं घग्निका घर में बनाये रखना । घुकने न देना ।--रज्ः (पु०)-स्चसू (पु०) १ इन्द्रगोप नामक कीड़ा । चोरबहूटी । २ श्रर्नि को शक्ति | ६ सुवर्ण 1-रोहिगी ( खी० ) रोगविशेष | ! इसमें श्रर्नि के समान सलकने हुए फफाले पढ़ जाते हैं ।--लिट (पु०) श्राग की लॉ की रंगत | घोर उसके सफाय दे देख शुभाशुभ चतलाने की विद्याविद्ोष |--लाका (पु० ) बह लोक जिसमें श्रग्नि वास फरते ईं । यह लोक मेसुपबत घ्य्रश्र वाह (१०) १ धूम । घुआँ । २ घकरा।--विठ (एु०)्स्निहोत्री ।-विंदया (खी ०) श्रस्निहोत्र 1 श्रस्ति की उपासना की च्धि ।--विश्वरुप केतुतारों का एक भेद ।--वेशः आयुर्वेद के एक आचार्य ।--वतः (पुर) वेद की एक ऋचा का नाम ।-चीये ( न० )) १ '्रिनि की शक्ति या पराक्रम (२) सुवर्ण ।--शरणं (न०)--शाला (ख्री ) -शाले (न०) वह स्थान या गृद़ जहाँ पवित्र अग्नि रखी जाय।--शिखः (पु०) १ दीपक । २ आसिवाण । ३, कुपुम वा बरें का फूल । ४ केसर ।--शिखें (न०) १ केसर । २ साना। . -ाप्ठुननप्टुमनप्टोमस ( पुष ) यशविशेष । -संस्कारः (पु०) १ तपाना । २ जलाना । ३ शुद्धि फे लिये श्रप्मिस्पर्शसंस्कार का विधान । ३ सतक के शव को भर्म परने के लिये चिता पर श्रम रखने की क्रिया । दाहकर्म । ४ श्राद्ध में पिरटवेदी पर श्राग की चिनगारी फिराने की रीति ।--सखः, सदायः (पु०) १ पवन । हवा २ जंगली कबूतर | ३ धूम। धुश्ना ।--साक्तिक (वि० या ( क्रि० वि० ) श्रम्ि देवता के सामने संपादित । श्रश्नि को साती करना ।- सात्‌ ( क्रि० वि० ) श्राग में जलाया हुध्ा । भत्म किया हुआ ।--सेवन श्ाग तापना ।--स्तुत यज्ञीय कर्म का वह भाग जो एक दिन श्रधिक होता है।-स्तोमः (पु०) देखे '्रम्िप्टोम'” । - प्वान्त! ( पु० दिव्य पितर । नित्य पितर । पितरों का एक मेद । श्रम, विययुत्‌ दि दिद्य ओ का जानने वाला ।--हैन्रे । न० ) एक यज्ञ । सायं प्रातः नियम से किये जाने वाला धैदिक कर्म विशेष ।--होनिन्ू ( वि० ) भन्निहेत्र करनेवाला | घ्सीध्र ( पु० ) फत्विकू विशेष | इसका कार्य यज्ञ में श्रग्नि की रक्षा काना है । के शिखर के नीचे है ।--लिट्भः--वंशाः श्री पोमीयम्‌ ( न० ) श्रस्विसिम नामक यज्ञ की ( पु० ) देखों “श्रर्निकुल” ।--वघूर स्वाद, जो ! दल की पुत्री श्रीर श्रग्नि की खी हैं ।-वर्धक (वि०) जठरास्नि को बढ़ाने वाली (दवा 1--वणाः हए०) इचवाकुवंशी एक राजा का नाम । यह सुदशंन का पुत्र घर रखु का पौत्र था ।--वल्लशा ( पु० ) १ साखू का पढ़ 1२ साल का गॉदि 1 ३ राल । धूप । हृवि यज्ञ विशेष । इस यज्ञ के देवता अग्नि श्रौर साम माने गये हैं । द्म्र ( वि० ) 9 गे का भाग | श्रगला हिस्सा | सिरा | नाक । २ स्पत्याजुसार मिच्षा का परिमाण, जो मोर के ४प थ्रंढों या सोलह माशे के वरावर हेता है । ३ अ्रयम ' ४ श्रेप्ट। प्रधान । - धनी सं० श० कौ०--२




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