संगीत | Sangeet

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Sangeet by प्रभुलाल गर्ग - Prabhulal Gargश्री. विश्वम्भरनाथ भट्ट - Shri Vishwambharanath Bhatt

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श्री. विश्वम्भरनाथ भट्ट - Shri Vishwambharanath Bhatt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋ# जनवरी ५१ ११ प पां8 पड एपाए&0(: 15 16. णि८थधिए16 0. 16 ए067 घाटी) 15 ए0पपघ्छ ए006 फिदा! 20. हावधाएत 8नघापाधातघ] 10 ज्रोजटी! फिट घए0ए5 ा€ 8घ्८% 0] घ्6८082ा081 पघाएएलाड, प्फाड इडप्ाा6ाए, फाो।एी। वा, छिब्तघांड ८8315 (घ हाधात ०016. पािपाटा; छा 056. 59766: (0165 (0प0)1 (16 ४61४ 000005 0 घि6 6811 ), 15 0४7 णिएरण (एटा! घाव प्राप्झ60 &इट[ पा 8. ४ दिफ 18065... 15. ए0तेटाए टाब56ाघघए6 18 (16 पुाणणा 01 घाव, फ्रिह [तांघए तप[लाएल, छाशंटी। 150. टाजंघा। णाछाए 80 95 01४ परिधि. 56४८7. ड0छुक, 0०एघा2 पिह्ट 0८घ9४७५, 3006 0 घ16ा1 816... 0... छाघ55. घाएएं 006. ए. 81661, 116 8घांए0ए5 16 (पाए60 तधलिडाएपिक् धणिए 6901 इघछु8, 50 88 (0 1€ूज0तप८6 घी फा0096 घादडाए815 0 (81. 1तछुछ 800 घाष घ]ज़ाघप5 019960 छाए! 16018. घन वाद्यों में सबसे प्राचीन वाद्य डमरू तथा ढोल हैं । ढोल की असंख्य जातियां अभी तक विद्यमान हैं । कलकत्ते के “इन्डियन म्यूजियम” में लगभग २४६० विभिन्‍न प्रकार के ढोलों का संग्रह है । भारतीय सड्गीत में इस समय मृदृज्ज तर तबले का ही अधिक प्रचार है। कहा जाता हे कि त्रिपुर विजय के उपलब्त में जब महादेव जी ने नृत्य किया था, तब उनके नृत्य के साथ बजाने के लिये ब्रह्मा ने इस मृदज्ड का आविष्कार किया था, और सब प्रथम गणेश जी ने इस वाद्य को बजाया था ।. म्रदज्ञ शब्द का अध “मिट्टी का बना हुआ” भी होता है । इसी आधार पर कुछ लोगों का अनुमान है कि बहुत प्राचीन काल में इसका खोल संभवत: मिट्टी का बना हुआ होता था । परन्तु आजकल इसका खोल काए द्वारा ही निर्मित होता है। स्दज्ओम का प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है । इसी की रूप रेखा का जो वाद्य उत्तर भारत में बजाया जाता है उसे पखावज कहते हैं । पखावज मृदज्ञम से कुछ बड़ा हाता है । बसे इन दोनों वाद्यों में कोई तात्विक अन्तर नहीं है । नगाड़ा; भेरी; नककारा;, दुन्दुभी, महानगाड़ा, ढोल, ढोलक, ढाक इत्यादि इसी जाति के अन्य घन वाद्य हैं । अआदिकालीन सुपिर वाद्यों में शंख और श्रज्नी संभवत: अधिक प्राचीन हैं । बेल के सींग के बने हुए इस श्रेणी के वाद्यों के भी प्रचुर नमूने 10तांशा पड८पाए। में संग्रहीत हैं । इसी के अनुकरण पर झागे चलकर तांबे के सींगों को बजाने का प्रचार हुआ । नेपाल, तथा मद्रास, तांबे के बने हुए सींगों के लिये विशेष प्रसिद्ध है। दक्षिण में इसी वाद्य को संभवत: कंबु कहते हैं । तामिल भाषा में कंबु का अर्थ “सींग” है। बांस की बांसुरी, बन्शी अथवा मुरली ता स्व विश्रत ही हैं। सुविर वाद्यों में शहनाई भी महत्व पूर्ण हे । अरब के हकीम बू अली सहनई इसके आविष्कारक माने जाते हैं। इस वाद्य में भारतीय शाख््रीय सड्जीत की प्रायः सभी विशेषताएं मार्मिकता से अभिव्यक्त होती हैं । उपयु क्त अधिकांश वाद्यों के बजाने में समय-समय पर भिन्न-भिन्न कलाकारों ने अपूर्वे ख्याति प्राप्त की है; परन्तु खेद दे कि इन कलाकारों के विस्तृत जीवन चित्र उपलब्ध नहीं हैं। क्रतिपय पुस्तकों में अथवा कुछ पुराने कलाकारों से इनके विषय में जो कुछ ॒विदित होता है, उन्हीं बातों पर मन्तोष करना पढ़ता है । अधिकांश




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