कबीर साहिब की शब्दावली भाग 3 | Kabir Saheb Ki Sabdawli Bhag 3

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Kabir Saheb Ki Sabdawli Bhag 3  by श्री कबीर साहिब - Shri Kabir Sahib

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कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।

वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।

कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महिमा शब्द १ राम रतन पहलाद पारखी, नित उठि पारख कीन्हां ॥ इंद्रासन सुख आसन लीन्हां, सार सब्द नहिं चीन्हा ॥ २॥ अच सुनि लेट जवाहिर मोदी, खरा खोट नहिं बूका । सिव गोरख अस जोगी नाहीं, उनहूँ को नहिं सूका ॥ ३ ॥ बढ़ बड़ साधू बाँधे छोरे, राव भाग दुइ कीन्हा । 'रारा' अच्छर पारख लीन्दा, मा हिं भरमतज दीन्हां ॥ ४ ॥ जो कोइ होय जौहरी जग में, सो या पद॒ को चूस । तीन लोक चार लोक लौं, सब घट अंतर सूके ॥ ९५ ॥ कहे कबीर हम सब को देखा, सबे लाभ को धावे । सतयुरु पिले तो मेद बतावे, ठीक ठोर तव पावे ॥ ६ ॥ ॥ राब्द ३ ॥| इक दिन साहिब बेजु बजाईं । सब गोपिन मिलि धोखा खाई, कहैं जुदा के कन्हाई ॥ १ ॥ कोइ जज़ल कोइ देवल बतावै, कोई द्वारिका जाई । कोइ झअकात प्राताल बतावे, कोइ गोकुल ठहराई ।! २ ॥ जल निमंल परवाह थकित भे, पवन रहे ठहराई । सोरह बचुधा इकुइस पुर लॉ, सब मुद्धित होइ जाई ॥ ३ ॥ सात समुद्र जंवे घहरानो, ते तिस कोटि अधानों । तीन लोक तीनों पुर थाफे, इन्द्र उठों झकुलाना ॥ ४ ॥ दस तार ऊष्न लो थाका, कुरम बहुत सुख पाई । समुकि न परो वार पार लाँ, या घुनि कहूँ तेँ जाई ॥ ९. ॥ सेसनाग थी राजा चासुक. बराह मुदित होड़ आईं । देव निरज्जन दाद्या माया, इन दुनहुन सिर नाई ॥ ६ ॥ कहें कवीर सतलोक फेपूरुप, सब्द कर. सरनाई । भी अंक ते कुहुक निकारी, सकल सृष्टि परछाई ॥ ७ ॥ हलवनाल हा शव,




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