न्याय प्रदीप | Nyay Pradeep

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Nyay Pradeep by दरबारीलाल न्यायतीर्थ - Darabarilal Nyayatirth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ न्यायप्रदीप । दितीय अध्याय । 0 2 प्रमाण । जिसके द्वारा वस्तु सचेरूपमें जानी जाय उसे प्रमाण कहते हैं । . बस्तुके जानने का. काम आत्मामें रहनेवाले ज्ञान गुणका है इसलियि प्रमाण दब्दसे ज्ञान ही कहा जाता है । इसीछियि किसी किसीने प्रमाण का लक्षण सम्यम्ञान किया है । व्यवहारें ज्ञानके आतिरिक्त अन्य पदार्थ भी प्रमाण समझे जाते हैं । जैसे- आपने रुपये लिये हैं इसकेलिये अमुक आदमी प्रमाण है. अथवा आपका पत्र प्रमाण है यहां आदमी या पत्रकों प्रमाण कहनेका प्रयोजन यह है. कि इनके द्वारा सत्य बात जानी जाती है । यद्यपि जान- नेका कारण ज्ञान ही है लेकिन ज्ञानका निमित्त कारण आदमी या पत्र है. इसछ्यि उपचौरसे इन्हें भी प्रमाण कहूसकते हैं । इसीलिये किसी किसीनि इंदिय और अर्थका सन्निकष अथवा इन्द्ियोंका व्यापार प्रमाण माना है । परन्तु इसे मुख्यप्रमाण न . समझना चाहिये । क्योंकि ये तो मुख्यप्रमाणके कारण हैं स्वयं मुख्यप्रमाण नहीं हैं. । मुख्यग्रमाण वही है जो पदार्थके जाननेमें सन कलककनवलललतततककसिल मल लललाकिसतसलनिकललल १ प्रकर्षण--संश यादिव्यवच्छेदेन मीयते--परिच्छियते--ज्ञायते वस्तुततत्व येन तत्प्रमाणम्‌ । २ सम्यग्ज्ञानम्प्रमाणमस । न्यायदीपिका । ३ मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते-मख्यके अभावमं कोई प्रयोजन या निमित्त मिठने पर उपचारकी प्रवृत्ति होती है । ह्ग




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