ज्ञान दान | Gyan Dan

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Gyan Dan by यशपाल - Yashpal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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' गे | ज्ञानदान की । शरीर का कठोर दसन, उसकी पुकार की उपेक्षा ही तपस्या है। उस विषय का एक अत्यन्त सजीव. उदाहरण ब्रह्मचारिशी सिद्धि के रूप में उनके सम्मुख था । परन्तु युवती के ध्यान को वे मन में आने देना उचित न सममते थे | कक तट के जल की ओर उनकी दृष्टि थी। स्वच्छ जल में किल्लोल करती मछलियों की ओर देखते हुए वासना का दमन किये हुए वे दुख से मुक्ति पाने का उपाय सोचने लगे । परन्तु विचारों के क्रम सें ब्रह्मचारिणी सिद्धि का समाधिस्थ रूप दिखाई पड़ जाता; सीघे मेरुद्रड के आधार पर मस्तक, नासिका, चिबुक, उरोजों की सच्धि और च्रिबलियों में छिपी नाभि सब एक सीधी रेखा में...और सृगचस से आधवृत्त शरीर के अधोभाग के सम्मुख, संयतभाव से एक दूसरे पर रखी हुई पिरडलियाँ और एक दूसरे पर रखी हुई हृथेलियाँ । इससे पूर्व भी नारी को उन्होंने देखा था; पल्ितअंग तपस्वि- नियों और वस्तों से शरीर को लपेटकर राजमागंपर चलती हुई पाप और सोह में लिप आत्मा नगर की खियों को । उनकी ओर दृष्टिपात करने की इच्छा भी ब्रह्मचारी नीड़क के सन सें न हुई थी । परन्तु न्रह्मचारिणी सिद्धि का समाधिस्थ रूप अनेक बेर उनकी कल्पना की दृष्टि में सम्सुख आ खड़ा होता । उन्हें याद हो आया; न्रह्मलचारिणी अपने नेत्र मूँदे हुए थीं । परन्तु अनेक ऋषि अर तपस्विनियाँ एकटक उनकीं ओर देख रही थीं--“सिद्धि नेत्र क्यों मूँदे थी ?”-- उनके मन में प्रश्न उठता । .... प्रबचन को ध्यान-पूवक सुनने के लिए--स्वयं उन्होंने अपने _ प्रश्न का उत्तर दिया । उसी क्षण विचार आया-सम्सवतः इसलिए कि वह उन्हें देखना नहीं चाहती । परन्तु वे उन्हें




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