ब्रह्मचर्य दर्शन | Bramhacharya Darshan

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Bramhacharya Darshan by उपाध्याय अमरमुनी- Upadhyay Amarmjuni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपक्रम ७ गीता में कहा गया है कि जो साधक परमात्म-भाव को अधिगत करना चाहता है उसे ब्रह्मचयं-ब्रत का पालन करना चाहिए । बिना इसके परमात्म-भाव की साधना नहीं की जा सकती है । क्योंकि विषयासक्त मनुष्य का मन बाहर में इन्द्रिय- जन्य भोगों के जंगल में ही भटकता रहता है वह अन्दर की ओर नहीं जाता । अन्तमुख मन ही ब्रह्मचयं का साधक हो सकता है । विषयोन्मुख मन सदा चब्चल बना रहता है । शक्ति का सूल स्रोत ब्रह्मचयें जीवन की साधना है अमरत्व की साधना है । महापुरुषों ने कहा है--ब्रह्मचयं जीवन है वासना मृत्यु है । ब्रह्मचयं अमृत है वासना विष है । ब्रह्मचयं अनन्त शान्ति है अनुपम सुख है । वासना अशांति एवं दुःख का अथाह सागर है । ब्रह्मचयं शुद्ध ज्योति है वासना कालिमा । ब्रह्मचयं ज्ञान-विज्ञान है वासना श्रास्ति एवं अज्ञान । ब्रह्मचयं अजेय शक्ति है अनन्त बल हैं वासना जीवन की दुबंलता कायरता एवं नपु सकता । ब्रह्दाचयं दारीर की मूल शक्ति है । जीवन का ओज है। जीवन का तेज है । ब्रह्मनय स्वेप्रथम शरीर को सशक्त बनाता है । वह हमारे मन को मजबूत एवं स्थिर बनाता है । हमारे जीवन को सहिष्णु एवं सक्षम बनाता है । क्योंकि आध्यात्मिक साधना के लिए दरीर का सक्षम एवं स्वस्थ होना आवश्यक हैं । वस्तुतः मानसिक एवं शारीरिक क्षमता आध्यात्मिक साधना की पुर्वें भूमिका है । जिस व्यक्ति के मन में अपने आपको एकाग्र करने की विचारों को स्थिर करने की तथा दारीर में कष्टों एवं परीषहों को सहने की क्षमता नहीं है आपत्तियों की संतप्त दुपहरी में हँसते हुए आगे बढ़ने का साहस नहीं है वह आत्मा की शुद्ध ज्योति का साक्षात्कार नहीं कर सकता । भारतीय संस्कृति का यह वज्ज आघोष रहा है कि-- जिस शरीर में बल नहीं है शक्ति नहीं है क्षमता नहीं है उसे आत्मा का दर्शन नहीं होता है । सबल शरीर में ही सबल आत्मा का निवास होता है । इसका तात्पयं इतना ही है कि परीषहों की आँधी में भी मेर के समान स्थिर रहने वाला सहिष्णु व्यक्ति ही आत्मा के यथाथ॑ स्वरूप को पहचान सकता है । परन्तु कष्टों से डरकर पथ-भ्रष्ट होने वाला कायर व्यक्ति आत्म- दर्शन नहीं कर सकता । अतः आत्म-साधना के लिए सक्षम शरीर आवश्यक है । और शरीर को सक्षम बनाने के लिए ब्रह्मचयं का परिपालन आवश्यक है । क्योंकि मन को विचारों को २. थदिच्छन्तों त्रह्मचर्य चरन्ति--गीता ८११ ३. लायमात्मा बलहीनेन लभ्य--सुर्ड्कोपनिषद्‌ ३1२४ |




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