भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनयदर्पण | Bhartiya Natya Parampara Aur Abhinayadarpana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाचार्य भरत और उनका नाट्यदास्त्र आचार्प भरत नाटयशास्तीय ग्रत्यो के निर्माण की मूर्त परम्परा का प्रवर्तन आचार्य भरत के नाटयशास्त से हुआ। आचार्य मरत के मम्वन्य में सभी विद्वानों वा एकसत से यह अभिमत है कि वे महानु प्रतिभागाली और युग- विधायक महापुर्प हुए। उनकी गणना महामुनि वाल्मीकि और महामत्ति व्यास वी श्रेणी में की गयी है। उनवा नाटपशाह्त एक विश्वकोशात्मन रचना है, जिसमें अनेक शिल्पों, नानाविय कलाओ और विभिन्न विद्याओं का एक साथ दिग्दर्थन हुजा है। आचार्य भरत या ध्यक्तित्व साहित्य में सर्वर व्याप्त है। नाट्यशास्न वे निर्माता के रूप में उनका नाम विश्व साहित्य में अमर हो चुका है। उनका यह महानु ग्रन्थ, चारो वेदो का दोहन कर पांचवे वेद के रुप में विधुत है और अपने निर्माता के यश एव गौरव को सुरक्षित बनाये हुए है। वे वात्मीकि और व्यास की परम्परा मे प्रतिमायाली आचार्य थे, जो ऋषिकल्प होते हुए भी सामान्य लोव-जीवन मे घूल-मिल गये थे। ऐतिहासिक दुष्टि से विचार वरने पर आचार्य मरत के नाम ओर स्थितिकाछ के सम्बन्ध में अनेक प्रदन सामने भातें हैं। उनके मरत नाम के सम्बन्ध में ही पहली जिज्ञामा उत्पन्न होती है। कुछ विद्वानों वा अभिमत है कि भरत ठिसी व्यक्ति विशेष वा नाम से होगर एक परम्परा, सम्प्रदाय या वशशाखा का नाम है। वैदिक युग में इृधाइव गौर शिलाछि द्वारा जिन मिश्नुसूतो तथा नटसुवों का निर्माण हुआ था, उनमें नटसुबों के निर्माता शथिलालि की जो दायसा परम्परा से आगे बड़ी, उसी को वाद में भरत नाम से वहा गया । भरत नाम के सम्बन्ध में इस श्रास्ति वे अन्य भी अनेक वारण है। कुछ ग्रन्यो में सट वे पर्याय में भरत दाद्द वा उल्लेस हुआ है। अमरसिंह के अमरकोद (२1१०-१२) में नट दाद्द के पर्यायार्थक भरत शब्द का प्रयोग हुआ है और नाटथशास्तर की चार परम्पराओं का उल्ठेख किया गया है। पहली परम्परा मे शिछाठि थे नटसुवों को रखा गया है, जिनका प्रवर्तन जयाजीव जाति दे लोगों ने किया। दूसरी परम्परा में बशाय्व के मिशुसूपों की गणना वी गयी है, जिनया प्रवर्तन दलूप जाति के लोगो ने किया। तीसरी परम्परा में भरत के माटपशास्यर को रखा गया है, जिसता प्रवर्तन नट जाति के लोगों ने सिया और चौथी परम्परा में छोकगूथाओ एवं लोर प्रिय नायकों वे चरिता वा समायेश रिया गया है, जिनरा प्रवर्तन सूवो, चारणों एवं बुशीलवों ने किया। इस चौथी परम्परा वा उदय छोगइचियों वे आधार पर हुआ है और ठोव में ही उसका अस्तित्व अक्षुण्ण रूप में बना रहा। ही रद




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