विजय मिली विश्राम न समझो | Vijay Mily Vishram Na Samjho

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर भारत के प्रसिंद फ्रान्तिकरी एयामजी कृष्ण वर्मा, सरदारसिह राणा और सावरकर से हुई । इस भेंट से उनकी स्वदेश-भावना और भी विकसित हो उठी । ये लन्दन के 'हाइड- पार्क में भाषण देने लगी । अंग्रेजों के ही देश में अंग्रेजों द्वारा भारत में किए गए जुरमों की कहानी दिन-दहाड़े सुनाई जाने लगीं । भारतीय नारी की ओजस्दी वाणी सुनकर अंग्रेज- जनता स्तब्ध रह गई । वे अमरीका भी गईं । वहां वल्डॉफें एस्ट्रो रिया होटल में भापण देते हुए उन्होंने बहा--मेरे देश के श्रेप्ठ-जनों को अपराधियों की भांति देशमिकाले अथवा जेलों की सजा दी जाती है । वहां उन्हें कोड़ों से यातनापूर्वक इतना पीटा जाता है कि उन्हें अस्पताल भेजना पड़ता है । हम शान्ति प्रेमी है, हम रदत-भरी क्रान्ति करना नहीं चाहते । परन्तु अपने देशवासियों को अपने अधिकार और पराधीनता की वेड़ियों को उतार फेंकने की शिक्षा देना चाहते है। लन्दन वापिस सौटकर 1908 को नवम्बर में उन्होंने एक अन्तिम भापण दिया--- “तीन वर्ष पूर्व हिसक आन्दोलन की बातें कहना मुझे रुचिकर न था, परन्तु लिबरत्सं की निदेध, थोधी गौर धूत्तता भरी बातों से मेरी वह भावना नष्ट हो गई है। हम हिसा का पथ क्यों न चुनें जयकि हमारे शत्रु हमें उस मार्ग की ओर धवका देते हैं। यदि हम शक्ति प्रयोग करते हैं तो इसलिए कि हमें शक्ति वरतने को बाध्य किया जाता है। जबकि रूसी सीफी परवोस्की भौर कामरेड ऐसे ही कार्य के लिए ऐसा ही मार्ग अपनाने पर भी बहादुर हूं । यदि रूसी हिंसा की प्रशंसा की जाती है तो भारतीय हिंसा की प्रशंसा क्यों नहीं की जाती ? निरंकुश शासन निरंकुश है, उत्पीड़न उत्पीड़न है, चाहे बह कही भी किया जाएं । सफलता उस कार्य का न्याय पक्ष लेती है । विदेशी शासन के विपरीत सफल विद्रोह देश- भवित है । मित्री, हमें सारी हीनता, सन्देश थौर भपष निकाल देने चाहिए। अंग्रेजों की दुष्टि में उनके इस का से अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें इंग्लैंड छोड़ने का आदेश दिया । परन्तु भिखाई जी कामा भयभीत होनेवाली महिला न थीं ! एक रात वे चुपके से इंगलिश चैनल पार कर फ्रांस पहुंच गई, जहां श्यामजी वर्मा, सरदारसिंह राणा तथा अन्यमा रतीय क्रास्तिकारी पहले ही आ गए थे । अब पेरिस उनका निवास केन्द्र बन गया । भारत के अनेक प्रवासी क्रान्तिकारी उनके पास थाने लगे, उनका घर क्रान्ति की कार्यगतियों का केन्द्र बने गया । क्रान्ति विचारों के पर्चे हाथ से लिखकर वितरित किए जाने लगे । फ्रांस और रूस के भारत किहेपी क्रांतिक्रियों ने उनकी मदद की | भिखाईजी कामा के ओजश्वी भापण अंप्रेजों के अत्याचारों का वखान करने लगे 1 अंग्रेज सरकार इससे वितित हो उठी और उसने फ्रांस सरकार से भिखाई जी कामा को इंग्लैंड भेजने की म्ा्थेना की, परन्तु फ्रांस सरकार ने इसे स्वीकार नही किया ! तब अंप्रेज सरकार ने उनके भारत प्रदेश पर रोक लगा दी । उसने उनकी भारत में सम्पत्ति भी जब्त कर ली । श्रीमती कामा ने पेरिस से 'बन्देमातरमू' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया । जब भारत में 1910 का प्रेस एक्ट लंगा तो “वन्देमातरमू ने इसे सरकार की पराजय गौर भारतीय क्रान्ति की विजय की संज्ञा दी । कामा ने पत्र लिखा--ठीक निशाने पर शूट




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