वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति | Vedik Vigyan Aur Bhartiya Sanskriti

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Vedik Vigyan Aur Bhartiya Sanskriti  by पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हर ) सवस्सरों यज्ञ, प्रजापतिः ( झतपथ, १1२1९।१२) । सवत्सर और यज, काल और जीवन, ये दो सष्टि के महान्‌ रदस्य हैं । अनेक प्रकार से इनका वर्णन वेदों में और ब्राझ्मण-अन्धो मे पाया जाता है । इन विद्याओं का परिचय वेदार्थ की कुजी है | अ्रमा-प्रतिमा ऋग्वेद में प्रदन किया है-- कासीत्प्रमा प्रतिमा कि निदान । ( १०1१३०1३ ) अर्थात्‌, इस विदव की रचना में प्रजापति के पास प्रमा या नाप-जोख क्या थी और प्रतिमा या नमूना क्या था * इसका उत्तर यही है कि प्रमा या मात्रा निश्चित करने के लिए प्रजापति ने सबत्सर का निर्माण किया और इसकी प्रतिमा या. नमूने के लिए स्वय अपनी ही आइुति डालकर सर्वहुत यज्ञ का विधान किया । इस विद्व रूपी यन् के यूप में सर्वप्रथम कौन सा पद बॉधा गया ? इस प्रदन का उत्तर यही है कि प्रजापति ने स्वय अपनी ही आइुति इस यज्ञ में दी, प्रजापति स्वय ही इस यज्ञ के पट बने । जो प्रजापति का रूप है, बही पुरुप का रूप है । इसील्ए पुरुष को प्रजापति का नेदिष्ट या निकटतम प्राणी कहा गया है-- घुरुपो वे प्रजापतेनेंदिष्ठमू । (शतपथ ४1 ३४1३) यज्ञ-विद्या बेद-विद्या की दृष्टि से यज्ञ-विद्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। यश का जो स्वरूप ऋग्वेद मे उपलब्ध होता है, वह विदव रचना और पुरुष की अध्यात्म-रचना इन दोनों को समझने के लिए आवश्यक है । ऋग्वेद के पहले ही मत्र में भग्नि को यश का देवता, पुरोहित, बऋदत्विजू , होता ओर रतनों का आधान करनेवाला कहा गया है। पॉर्चो विशेषण सार्थक हैं और अग्नि या प्राण की मूलयूत विद्षेषताओं का परिचय देते हैं । अग्नि पुरोहित है । इसका तात्पर्य यद्द है कि समस्त देवों में अग्नि प्रत्यक्ष प्रास है। अग्नि के द्वारा दी अन्य देव या शक्तियाँ पकड मे आती है । मानव-द्रीर में जठराग्नि के रूप में अग्नि हमारे सबसे अधिक निकट और प्रत्यक्ष अनुभव की चस्तु हैं । तीन या पॉच दिन निराह्ार उपवास करने से अग्नि की महदती शक्ति का परिचय प्रात किया जा सकता है । यह अग्नि अन्न का परिपाक करती है और दारीर के जितने अग प्रत्यग हैं, सबका निर्माण करती है । यद्द अग्नि कोई ज्वाला या ल्पट नहीं; जो हमारे भीतर दहक रही दो 1 यदद नितान्त पार्थिव है 1 आमादाय के भीतर जो अनेक रसात्मक श्र या अम्ल हैं, वे ही इस अग्नि के रूप हैं, जो खाये हुए अनेक मकार के पदार्थों को पचाकर उनसे रस रक्त मास-मेद-अस्थि मउ्जा-झुक्र इन सतत घाठओ की चिति करते है | यहदी अग्नि का पाथिव रूप है | ऐतरेय के अनुसार प्रथिवी पुरोधाता है गोर अग्नि पुरो हित है। बिदव की मूकभ्रूत दाक्ति या अग्नि को प्रकट होने के लिए पार्थिव या भौतिक डारीर चाहिए। वद्द अभि स्वय पार्थिव घरातल पर प्रकट होकर मौतिक देद का निर्माण करता है | यदद देह नियमों से वेंधा हुआ एक सस्थान है, जिसका प्रत्येक कार्य विदव-विज्ञान के




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