मृत्यु - भोज तथा अन्य वैज्ञानिक कहानियां | Mrityu-bhoj Tatha Anya Vaigyanik Kahaniyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सृर्युन्भोज दर देखा । श्राशका से मुरली की आँखें फैल गयी । बही ऐसा न हो कि उठाने के साथ ही गेंद घधडाम से फट जाए । पोंद न फटी । पत्नी ने उसे उसी कॉरनर-टेवल पर रख दिया, जहाँ मुरली ने, भझपनी बेहोशी दूर होने के साथ, उसे पहली वार देखा था । परनी दापस पलग की तरफ़ छाती हुई दुददुदा रही थी, “कॉरनर-टेदल पर से वह गेंद गिर कंसे गई ?” *पपता नहीं ।” “गिरने की आवाज़ तो हुई होगी । “शायद ! मुझे नहीं मालूम ।” “क्या है बहू चीज ? ” *एक फालतू पुर्जा ।” सफेंक्दू ?” नही ।” सकयो 2” खुन्दर है-है न?” ही, है तो सुन्दर ! उसकी डिजायत में एक भ्रजीब-सा-सम्मोहन है 1” “सम्मोहन ?” मुरली की मौहि उठी । “माप चौंके क्यो ?” “नहीं तो ! झौर सुरलो ने चाय वी श्रन्तिम चुस्की खीच कर, खाली वप पल्नी की थोर बढ़ा दिया । “पत्नी भी चाय पी चुकी थी । “अब धाप सो जाइए शार्खे भूद वर ।” वह स्नेह से कुछ इस तरह बोली, गोया उसके पति को मालूम ही न हो कि सोने के लिए भले भू दना जरूरी होता है । मुरली ने भाँखें सूद सी। सिडिक्‌ ! --दरवाज़ा बन्द होने की झावाज़ । भवश्य पत्नी जा चुकी थी मुस्ली ने बाँखें सोल दीं 1 उसे चैन नहीं था । कमरे में उसने सदर थी. भ्केला पाया । पत्नी अब तक किचन में पहुंच चुदी होगी **




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