भारतीय नाट्य साहित्य | Bharitiya Natak Sahitya

Bharitiya Natak Sahitya by सेठ गोविन्ददास - Seth Govinddas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१०] सेठ गोविन्ददास श्रभिनत्दन-प्रन्य अपनी सीमाएँ हैं और इस श्रनुभव पर श्राघृत किसी प्रविधि का निर्माण करना इसकी झ्रपेक्षा कहीं श्रघिक श्रच्छा है कि रंगमंचीय वस्तुग्रों, यन्तों, हश्यों, भवनों, विद्युत आदि के माध्यम से रंगमंच पर प्राकृतिक स्थितियों के पुनरुत्तादन के अ्रसम्भव प्रयास किए जाएँ, जो श्राधुनिक विज्ञान एवं यन्त्र-कौशल के युग में रंगमंच पर सरलता से हार्वी हो सकते हैं श्रौर नाटक तया पात्रों को नगण्य वना सकते हैं। कुमारस्थामी ने इस विषय में समस्त पूर्वीय रंगमंचों--संस्कृत, जावाई, चीनी श्रौर जापानी--में साम्य की ओर संकेत करते हुए कहा है, “वे समस्त वस्तुएं जो रंगमंच के लिए आवश्यक नहीं हैं उसके प्रभाव को क्षोण कर देती हैं ।” --रूपम्‌ ७, १६२१ नोट्स धान दी जावानोस थियेटर) अन्ततः नाटक एक भ्रम है श्रौर कोई रंगमंचीय यन्तों का चाहे कितना ही प्रयोग क्यों न करे, उसे माया-जगत में ही क्रीड़ा करनी पड़ती है । किन्तु यदि कोई बाह्य तथा श्रसंगत सहायताओं का परित्याग करने का साहस करता है श्रीौर झपने निजी श्रान्तरिक कार्य-स्रोतों का श्राघार लेता है तो चह स्वयं ही कला की श्रेष्ठता को चल प्रदान करता है । इस प्रकार जटिल रंगमंचीय का परित्याग मुल वस्तु में कविता, वातावरण एवम्‌ शक्ति का संयोजन कर देता है जिनमें हश्य का अथवा श्नुभव की अभिव्यक्ति होती है तथा जो गायन झथवा पाठ के समय पात्रों अथवा दशकों को स्वयम्‌ दृश्य की अपेक्षा अधिक स्थायी रूप से प्रभावित करती हैं। संस्कृत-नाटक में हश्यात्मक विधान उतना नहीं हुझा करता था, रंगमंचीय तत्त्वों का योग कम से कम था । परिस्थिति को भाषण तथां कथोपकंथन के निर्देशों द्वारा भर गीतों द्वारा, ग्रहण किया जाता था । हाँ, कथा-वस्तु में प्राय: उपलब्ध संक्षिप्त रंगमंच-निर्देशों का, जिन्हें 'परिक्रम्य' कहते हैं, कोई भी स्मरण कर सकता है । यह निर्देश कक्ष्या-विभाग नामक रूढ़ि से सम्बद्ध है जिसके अनुसार रंगमंच के कुछ भाग पंत, उद्यान, नदी-तट आदि कुछ दृश्यों के प्रतिनिधि-रूप समझे जाते थे झ्ौर जव कोई पात्र परिक्रमा करता था तव वह (ऐसे) विभिन्न स्थानों पर झ्राता था जिन्हें सजग नाटककार दशक के झभिज्ञान के लिए कथोपकथन श्रयवा वर्णंनावुच्छेंद द्वारा निर्दिष्ट कर देता था । इसी प्रकार रथ श्रादि रंगमंच पर नहीं लाये जाते, किन्तु उनके लिए श्रांगिक अभिनय तथा चिनज्नाभिनिय द्वारा उपयुक्त कलात्मक क्रियाएँ प्रस्तुत की जाती थीं जो उचित रूप में सम्पादित होने पर श्राइचयंजनक रीति से सफल प्रभाव उत्पन्न करती थीं । इस प्रकार अभिनय द्वारा व्यक्ति अदव अथवा रथ पर आारोहण कर उनका संचालन कर सकता है, नौका-विह्ार कर सकता है, शस्त्र-प्रहण तथा संचालन कर सकता है अथवा पत्थर फेंक सकता है । उदाहरणायें यह स्मरणीय है कि 'शकुन्तला' में *नाटुयेन




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