वृन्त और विकास | Vrint Aur Vikas

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Vrint Aur Vikas by शांति प्रिय द्विवेदी - Shanti Priya Dwiwedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेहरूजी : दिदार श्र व्यक्तित्व श्द् जवाहरलाजणीके सामने सघर्प इपछिए है कि उनमें वैज्ञानिक विचारों की उप्णता अधिक है। सयोगसे वे एक शसे देशमें उत्पन्न हुए जहाँ हिमालंयकी शीतरता भी है, वही उन्हें वैसे ही नियन्त्रित रखती है जैसे स्वतन्त्रता-संग्राममं गान्थीजीका नेतृत्व नियन्त्रित रखता था । अपनी आात्म- कथामें, अलमोड़ा जेलके संस्मरणमे उन्होंने श्रदूधापूर्वक लिखा हैं--''बीचसे भा जानेंवाले जंगलोंसे लें पहाड़ोके बहुत ऊपर बडी दुरपर हिमालयकी बर्फीली चोटियाँ चमक रही थीं । अतीतके सारे बुद्ि-कैमवकों लिये मारतवर्पके विस्तृत मैदानके ये सन्तरी बड़े शास्त और रहस्यमय लगते थे । उनके देखनेंसे ही मनमें एक शान्ति-सी छा जाती थी, और हमारे छोटेन्छोटे रेप और संघर्ष, मैदान आर दाहरोंको वासनाएँ और छल-छिद् तुच्छ-से लगसे लगते और उसके हुमेदाके मार्गोसि बहुत दूरकी चीज लगते ।--अलमोड़ा जेठमें नेहरूजी अपने इसी 'एकाकी नैभवी” ( एकान्त भाव ) में प्रकृतिस्थ रहते थे । मौलिक सतभेंद धर्मको न. मानते हुए भी नेहरूजी जैसे विवश होकर हिमालयकी शीतकता और प्राकृतिक सुषमाकों दिरोधार्य करते है और अभी हालमें अपने परिश्रान्त मस्तिप्ककों चिश्नाम देनेके लिए कुल्लू घाटी चले गये थे, वैसे ही वैज्ञानिक उष्णतास ऊबकर दयान्तिके लिए संस्क्ृतिकी ही दरणमें जाते है । फिर भी अपनी आत्मकथामें जैसे गान्धीवादकों स्वीकार करके भी उन्होंने उसे स्वीकार महीं किया, बसे ही सस्कुतिको शिरोधार्य करकें भी उसे बे अज्ञीकार नहीं कर सके हैं । उनकी आस्था और वास्तविकता में अन्योच्यता नहीं है, साध्य और साधनमे एकता नहीं है। साध्य वे जीवनके नैलिक गन्तन्यको मानते है, इसीछिए कहते है--केवक वैज्ञानिक उन्नतिसे लाभ नहीं हो सकता 1 किन्तु साधनोंके रूपमे वे घरिज्ञानकों ही अपनाते हैं। अभी हालमें ( ६ अपर, सन्‌ १९५९ ), इछाहाबादकों




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