ज्ञानबिंदुप्रकरण | Gyan Bindu Prakaran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४. . नि ज्ञानविन्दु काम करने के छिए. भी बहुत कुछ करना बाकी भी था | ई० स० १ ९३९ मैं बाकी का कॉम सहयोगी श्रीयुत दल्सुख मालवॉणियानें झुरूं किया । इसे बीच में सहृंदय मुनि श्री पुण्यविजयजीने एक और लिखित प्रति मेजी जिस की हमने त संज्ञा रखी है । यह प्रति प्रथम की दो प्रंतियों . से अनेक स्थानों में. पाठमेद वाठी भी थी और विशेष झुद्ध भी। इस ठिए पुनः इस प्रति के साथ मिलान शुरू किया और प्रथम स्थिर किए गए पाठान्तरों के स्थानों में बहुत कुछ परिवर्तन भी किंया । यंह संबे .कामें क्रमश चलता ही था पर अनुभंवने कहां कि जब ज्ञानबिन्दूं कलिजों के पीर्यिकरम में है और आगे इस को प्रचार करना इष्ट हैं तब इसे का अध्यापंने भी करी देनों चाहिए जिंस से एके सुनिश्चित परंपरा स्थिर हो जाय । - रत उक्त अनुभव के आधार पर ज्ञानबिन्दु का अध्यापन मी झुरू हुआ । श्रीमाठवणियां और श्रीमती हीरा ऊँमॉरी-जों सिंघी जैन प्रन्यमाठा के स्थापक श्रीमान बाबू बंदादुर सिंहजी की भागिनेयीं हैं--यें हीं दोनों सुख्यतया अंध्येंता थे। ये ही दोनों इस को संपादन करने वाले थे इस लिए अध्ययन के साथ ही साथ दोनों ने आवश्यक सुधार भी कियां और नई नई कल्पना के अनुसार इन्होंने और भी सामंत्री एंकत्र की | यंबपिं मैं पहले एक बार ज्ञानबिन्दु को मेरे एक आचार्य-परीक्षाधी शिष्य कों पढ़ी श्लुकां था परन्तु इंस समय का अध्यापन अनेक कारणों से अधिक अर्थ पूर्ण था । एंक तो यह कि अब ग्रन्थ छपने को जानें वाला था। दूसरा यह कि पढने वाले दोनों स्थिखुद्धी व्युत्प्नं और संपादन कार्य करने वाले थे। फढतः जितनी हो सका उतना इसे ग्रन्थ की झद्दि तंथीं स्पछंता के लिंएं प्रयत्न किया गया । श्री मालवणियाने टिप्पणयोग्य कच्ची सामंत्री को सुव्य- . वस्थित करे लिया । और मुद्रण कार्य ई० सं० १९४० में झुरू हुआ । १९४१ मैं श्रीमती हीरो दुंमारीने परिशिं्र तैयार किए और मैं प्रस्तावना लिखने की ओर झुका । १९४१ के अ्तें के साथ ही यह सारा काम पूरी होता है । इस तरह १९१४ मैं जो संस्कार सूंकम- रूप में मन पर पड़ा था वह इतने वर्षों के बाद मूर्तरूप धारण कर आज सिंधी जेन ग्रन्थ मॉों के एके मणिरूंप में जिज्ञाहुओं के संसुख उपस्थित हॉता है। ...... . को ं कर हक कि हल का दे स्य स्टॉप संस्करण का धरिचय- . .... . .. ... ८... हैं मूठ ग्रन्थ - प्रस्तुत संस्करण में मुख्य वस्तु है ज्ञानबिन्दु मूखप्रन्थ इस का जो पाठ तैयार किया गया है वह चार प्रतियों के आधार पर से है जिन का परिचय हम भागे कराएंगे । किसी भी एक प्रति के आधार से सारों.मूछ पाठ तैयार नं कर कें संब प्रतियों के पाठान्तर संग्रहीत कर उन में से जहाँ जो पाठ अधिक शुद्ध और विशेष उपयुक्त माद्धमः पड़ा वह वहाँ रख कर अन्य शेष पाठोन्तसों को. नीचे टिप्पणी में दे कर मूंक पांठ तैयार कियां गंधा है ॥ अर्थदृष्टि से निषयोँ का विभाग तथा उनके शीर्षक भी हमने किए हैं । लिखित या पहले कीं मुद्रित प्रति मैं. कैसा कुछ न था । अन्थंकारने ज्ञानबिन्दु में मूठ अन्य के नाम पंबक या बिनां नाम दिए जों जौँ डंडरणे दिए हैं उन.सब के मूल स्थान यथा संभव ऐसे. .... कोष्ठक में दिए गए. तक हैं ।.जहँ काम में. छाई गई चारों प्रतियों के आधार से भी ठीक पादंगुद्धि न हो सकी और. हमें भोषा विचार प्रसंग था अन्य साधन से शुद्ध पाठ सूझ पढ़ां वहाँ हमने वह पांठ ऐसे . कोष्क़ में संनिवि्ट किया है और प्रतियोंमें से प्राप्त पु ज्यों का सों रखा है। न सिरसा ्ै न क् ज्क पाए




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