कबीर का रहस्यवाद | Kabir Ka Rahashyavad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कंबीर की रहस्यवाद है रहस्यवाद जीवात्मा की उस छान्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें बद्द दिव्य और अलौकिक शक्ति से ापना शान्त श्र निश्डल सबंध जोड़ना चाहती है ओर यह संबंध यहाँ परिभाषा तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता । जीवात्मा की सारी शक्तियाँ इसी शक्ति के अनंत वैभव और प्रभाव से औओत-प्रोत हो जाती हैं । जीवन में केवल उसी दिव्य शक्ति का अनत तेज अन्तर्हित हो जाता है और जीवात्मा अपने स्तित्व को एक प्रकार से भूल सा जाती है। एक भावना एक वासना हृदय में प्रभुस्व प्राप्त कर लेती है और बद्द भावना सदेव जीवन के अग-प्रत्यगों में प्रकाशित होती रहती है। यही दिव्य संयोग है झात्मा उस दिव्य शक्ति से इस प्रकार मिल जाती है कि झात्मा में परमात्मा के गुणों का प्रदशन होने लगता है और परमात्मा में छात्मा के गुणों का प्रद्शन । कबीर की उल्टबाँसियाँ प्रायः इसी भावना पर चलती हैं । संतों जागत नींद न कीजे । काल नहिं खाई कप नहीं व्यापे देह जरा नहिं छीजे ॥ उलटि गंगा समुद्र ही सोखे शशि और सूर गरासे । नव ग्रह मारि रोगिया बेठे जल में बिब प्रकासे ॥। बिनु चरणन के दुई दिस धघावे बिनु लोचन जग सुर । ससा उलरटि सिंह को से है श्रचरज कोऊ बूसे ॥ इस सयोग में एक प्रकार का उन्साद होता है नशा रहता है । उस एकांत सत्य से उस दिव्य शक्ति से जीव का ऐसा प्रेम हो जाता है कि बह अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में छंतहिंत कर देता है । उस प्रेम में चंचलता नहीं रहती अस्थिरता नहीं रहती । वह प्रेम अमर होता है | ४ ऐसे प्रेम में जीव की सारी इंद्रियों का एकीकरण हो जाता है । सारी इंद्रियो से एक स्वर निकलता है और उनमें झपने प्रेम की वस्तु के पाने की लालसा समान रूप से होने लगती है। इन्द्रियाँ अपने च्ड




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