काव्य लोक - २ | Kabya Lok - 2

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Kabya Lok - 2 by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) जाते हैं, भले ही भूले न हों, पर जब उपेक्षा की दृष्टि से उन्हें देखते हैं तब भापका यहं पोथा किस काम आावेगा ? इसका सीधां सा उत्तर हमारे भाचायं दे गये है । भज्ञातपाण्डित्यरइस्यमुद्रा ये काव्यमा्ग दधतेऽभिमानम्‌ । ते गारुडीयाननधीस्य मन्त्रान्‌ दाङाहलस्वादनमारभन्ते ॥ ध्रीकण्डचरित साहित्य के ख्रष्टाओ, विशेषत काव्य-निर्माताओ को साहिष्यशाद्यं के रहस्यों को जान लेना अत्यावद्यक है । ऐसा न करने से वहीं लोकोक्ति चरितार्थ होगी कि-बिच्छू का सन्त्र न जाने सॉप के बिल में हाथ दे । इसीको महाकवि मङ्कुक ने कितने सुन्दर ढग से ऊपर कहा है' जिसका आशय यह है-- पाण्डित्य के रहस्यो- ज्ञातन्य प्रच्छन्न विषयो की बारीकी चिना जाने-खुने जो काम्य करने का छभिमान करते है वे सपंविषनाधक मन्श्रों कोने जानकर दखाहर विष चखना चाहते ह । गन्तव्य स्थान पर पचने के दौ मागं होते है, एक राजमाग भर दूसरा वक्र मागं | कोई वक्र मागंसेया कुशकण्टराकीणं मागं से प्रस्थान करने को प्रस्तुत हो तो दूसरा क्यों अपना राजमार्ग छोड़ दे ? हजारो वर्षों से जब हमारा बह राज्रसाग निरन्तर अश्लुण्ण रहकर प्रशस्त होता भा रहा है और अद्यावधि हमारे साहित्यश्षाख् ( @0८110० ) के, केवल सस्कृतविदालयों में ही नहीं, 'ंग्रेजी के महाविद्यालयों में भी, श्रध्ययन-भध्यापन कां कम वतमान रखकर उस राजमार्ग का अनुसरण किया जा रहा है तब भी क्या उसकी, उसको प्रशास्त फरने की भाषरयकता का निर्देश करनां आावदयक है ? कुछ छोग यह कहते हैं कि पहले परमुखापेच्षिता या पराधीनता का बाजार बहुत गर्म था | कवि-स्वातन्ध्य शाद्लीय नियो से ऐसा जकरू दिया गया था, श्चाद्नीय रूदियौँ इतनी प्रबक दो उठी थीं कि कवि दस से 'मस नही दो सकता था । उनसे नगर निवेदन यह है कि थे पठे भाधुनिक युग के भरस्यात जर्मन कवि रेनर मास्या रिव्के की सम्मति पढ़ें कि वे कविता के एक पद के लिये कितने अध्ययन, कितने निरीक्षण और कितने विविध उपकरणों की भावदयकता बलाते हैं तब कई कि हमारे प्राचीन लाचाय अपने नियमो के परधन में विशेषतः धते है को० भू० हे




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