कबीर सागर भाग १ | Kabir Sagar vol - I
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.8 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।
वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।
कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्ञानसागर। (१३).
पुरुष वचन ।
हस दुखित भये काल के पासा । जाइ छुड़ावहू काल की फाँसा॥
कहा करो जो दारो बोला । बरंबस करब तो सुकत ढोला ॥
जोग जीत तुम बेग सिधारो । भवसागर ते इस उबारो ॥
नि समय!
चढ़े ज्ञानी तब मस्तक पहुँचे तहूँ जहूँ धरम रहाई ॥
घर्मराय ज्ञानी कहूँ देखा । क्रोध भयो जब पावंक रेखा ॥
यहूवा आये किईि व्यवहारा ।लोकहि से मोहि मारि निकारा॥
मानव अज्ञा छांड्िव लोका। यही जान परे तुम धोखा ॥
करो संहार सहित तोहे ज्ञानी । मरम हमार ठुम कक न जानी ॥
साखी-संहार करो पल भीतर; कहीँ वचन परचार॥
पेठौ मान सर बिष्वंसी द्वीप सब झार ॥
ज्ञानी कहूँ सुने घर्मानि आगर । तो करूँ ठोर दीन्ह भवसागर ॥
तीनो पर दीन्हों तोहि याऊ । पुरुष आज्ञा आयो धार पांउँ ॥
चौरासी लक्ष जीव तोहि दीन्दा। तैं जीवन बड़ सासत कीन्हा॥
आज्ञा पुरुष करो परवाना । जीव लोक सब करो पयाना ॥
पुरुष बचन मेटे फूल पावहु। करियो अवज्ञा छोकसो आवहु॥।
सोई करहु रहन जो पावहु। की वेग सिधावहु ॥
के जीवन करें दीजे बांदा । बोलहु वचन घ्मे तुम छांटा ॥
साखी-घरम करें सुन ज्ञानी; आज्ञा पुरुष की सार ॥
सेवा करत रेन दिन, पर पल सहितबिचार ॥
हि चौपाई।
आज्ञा मान लीन्द मैं तोरा । अब सुनिये कछुषिनती मोरा॥
सो ना करब जो मोर बिगारा । मांगों बचने करो प्रतिपारा ॥
पुरुष दीन्हा मोहे राज बुलाई । ठुमददी देव जो संशय जाई ॥
User Reviews
Raj Kumar
at 2020-05-15 09:03:55"Sat Sahib Ji"