साकेत के नवम सर्ग का काव्य - वैभव | Saket Ke Navam Sarg Ka Kavya Vaibhav

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Saket Ke Navam Sarg Ka Kavya Vaibhav by कन्हैयालाल सहल - Kanhaiyalal Sahal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थे बच्चा जब इट वर छेता है तो कसी के बहुत मनाने पर भी दह्द कुछ 'खाता-पीता नहीं, याल-इठ तो प्रसिद्ध ही है । रंक को भी यदि राज्य प्राप्त हो जाय तो डसे पट्रप स्यंजन अनायास उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु भनभ्यास के कारण वह उन व्यंजनों से भी दूर दूर रहता है । इसी प्रसंग को लेकर उ.सिंछा भपनी सखी से कहती है कि तू क्षीर क्‍यों छे जाई है ? भौर क्यों इस प्रकार इद कर रही दै ? मैं तो इसे पीने से रही ? पर तू यह तो बता कि मुझे पिलाने का इठ क्यों कर रही है ? कया तूने मुझे वोई सफल-हठी झिशछु समझ रखा है जो रक डोकर भी राउयशाली हे !& उमिंछा के कदने का तात्पय यह दै कि में जोक्षीर नहदीं पी रही हूँ, इसका कारण यह नहीं हैं कि मैंने रु कर बच्चे की तरह दटठ ठान लिया हैं, न मेरे लिए यही कद्दा जा सकता हैं. कि सुझ्ने कभी व्यजनों की कमी रही हो; मैं तो पट्रष व्यजनों की गादी ही रही हूं किन्तु व रूँ कया, भाज प्रिय के वियोय में मेरो भूख जाती रही, मेरीजि्मा का स्वाद जाता रहा ! तू मेरे सामने व्यंजनों का थाऊ लाती हैं, किन्ठु एक कौर भी तो नहीं भाता--- झरी व्यर्थ है व्यंननों की बड़ाई , हटा थाल, दू क्यों इसे घाप लाइ ! वही पाक है; जो बिना भूख मावे ; बता किन्ठ तू ही, उसे कोन खावे ? बनाती रसो₹ सभीको खिलाती , इसी काम में श्रान में तृप्ति: पाती । रहा किन मेरे लिए एक रोना खिल्ञार्ड किसे मैं श्रलोना-सलोना 2 # 'रंक मी राउयशाली” दठिशु के विद्वेष्ण रूप में प्रयुक्त हुआ दे । अगकिंचन जन भी भपने बच्चा के इठ वो कुछ दे-दिला कर मथवा उनको बदला कर पूरा कर ते दें । इसलिए बच्चे रंक दोकर भी राज्यशाली कहे जाते हैं ।' नर




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