पत्रकारिता के अनुभव | Patrakarita Ke Anubhav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिल्‍नी में १३ उर्धनि हो सती है परन्तु समावार पत्र जेडी संस्याएँ पूरी तरह विकसित नहीं हो सकतीं । उनका एक परिमित प्र निष्चित लडय होना हो उपयुक्त है । वर्ष के अन्त में में व दरिशाम पर पहुँच गया कि यद्यपि नई पद्धति पर चत्तने से म्चारवर की पाठर संख्या बड़ गई है तो भो यदद नहीं कहा जा सकता कि उसका प्रभाव बट गया है । प्रमाद का '्रसिपाय है. ब्रेरणा । जब तक कोई पत्र पाठकों को प्रेरणा न दें सके, ठद तक वह सार्थक नहीं हो सकठा । श्रौर जिस पत्र का कीई निर्चित दृप्टिराण तथा क्षेत्र नहीं है शायद से ब्यापार का नाम दिया जा सके किन्तु उसे राष्ट्र का संचालक यन्त्र नहीं कहा जा सकता । फलत: में इस परिणाम पर पहुंच गया था कि “सदर्म प्रचारक” को उसके पुराने धार्मिक सूप में सुरक्षित करके एक नया राजनीतिक पत्र निकाला जाए जिसमें प्रपने हुदय वो भावना प्रौर लेखनों थी दंडरठि को सफल करने का पूरा भ्रवसर मिल सके । अभी नया पत्र निकालने की योजना गर्भावस्था में हो थी कि मेरे कार्यकम में प्राकश्मिक परिवहन भरा गया । मैरें बढ़ें भाई हरिडिचन्दर जी, जो स्नातक बनने के परचातु गुग्कुल में उपाध्याय का बाएं करने सगे थे, गुस्ठुल छोड़ कर दिल्‍ली शा गए घौर मुन् गुरदुल जाना पड़ा 1 साप्ताहिक 'विजप' मेने यु्पुल जाने से पृ प्रपने अनुभव पुष्य का परि- खाम भाई जी को दतसा दिया था । माई हो फिसी - पिचार दो पाये में ः मम परिशान करने में दिल्‍स्द




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