साहित्य की झांकी | Sahitya Ki Jhanki

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Sahitya Ki Jhanki by डॉ. सत्येन्द्र - Dr. Satyendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( क ) एक बहुत ही सहत्व-पू्ण अंश हमारे सामने से ओमल रहता है। कालों में साहित्य का विभाजन और उसी दृष्टि से उलकरा विवेचन साहित्य के यथार्थं रूप को सममने सें अससथ हैं। हिन्दी-साहित्य के ऐसे ही इतिहासों से कुछ लोगों के दो प्रकार के भाव हो गए हैं। एक तो यह कि हिन्दी-साहित्य में विकास का सूत्र नहीं, उसमें क्रलमें लगायी गयीं हैँ । दूसरे भारतीय साहित्यिक वातावरण में उसका कोई ऋम-युक्त स्थान नहीं। किन्तु ऐसा नहीं है। हिन्दी-साहित्य में विकास की चारा है। एक भाव बीज रूप से अंकुर रूप होता हुआ वत्त मे परिणत होता देखा जाता है। साथ ही उसमें काल और परिस्थितियों का सहयोग भी मिलता है | पृथ्त्रीराज रासो और बीसलदेव रासो जेसे ग्रन्थों में मिलने चाली प्रेम-क्हानी जायसी और अन्य पम-अख्यान-काउय-मसार्गी कवियों की कद्दानियों का भूल है और वह कद्दानी भी साधारण जलता की वस्तु हैे। इस प्रकार सूफियों की प्रेम कहानियाँ रासो के बाद अनायास ही नहीं उभर पड़ीं, उत्त कहानियों द्वारा प्रेम की पीर उत्पन्न की गयी । प्रेम की पीर ने प्रेमी की अपेक्षा अनुभव करायी और भक्त कवियों ने साकारः रूप खड़ा कर दिया-यह बात हमारी पुस्तक के पहले निबन्ध में च्यक्त की गयी दै । इससे रासो अथवा चारण-काल, प्रेमगाथा कालल ओर भक्ति काल सुग््खलित प्रतीत होने लगेगे। योँतो अनेक समस्याएं रासो चनौर प्रेमगाथा, साथ दी निगुखवाद्‌ सें




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